सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (11 फरवरी 1896 – 15 अक्टूबर 1961) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।
काव्यसंग्रह– जूही की कली कविता की रचना 1916 में की गई। अनामिका 1923, परिमल 1930, गीतिका 1936, द्वितीय अनामिका 1938 अनामिका के दूसरे भाग में सरोज सम़ृति और राम की शक्ति पूजा जैसे प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है। तुलसीदास 1938, कुकुरमुत्ता 1942, अणिमा 1943, बेला 1946, नये पत्ते 1946, अर्चना 1950, आराधना 1953, गीत कुंज 1954, सांध्यकाकली, अपरा।
उपन्यास– अप्सरा, अलका, प्रभावती 1946, निरुपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
कहानी संग्रह– लिली, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी-1941, सखी, देवी।
निबंध– रवीन्द्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह।
पुराण कथा– महाभारत
अनुवाद– आनंद मठ, विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुल्य, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भरत में विवेकानंद तथा राजयोग का बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद
Suryakant Tripathi Nirala
February 7, 2024
Poems In Hindi
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वर दे वीणावादिनी – an old classic by the famous poet Suryakant Tripathi Nirala. This lovely composition in chaste Hindi is a pleasure to sing loudly for its sheer rhythm and zing. On this Independence Day, this national poem should be shared by all. निराला ने 1920 ई० के आसपास से लेखन कार्य आरंभ किया। उनकी पहली रचना ‘जन्मभूमि’ पर …
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Suryakant Tripathi Nirala
October 24, 2018
Poems In Hindi
26,498
Love is the essence. As retreating water leaves the sand dry, so does lost love leave a person drained and lifeless. Here is a beautiful expression by Suryakant Tripathi Nirala. स्नेह निर्झर बह गया है: सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ स्नेह निर्झर बह गया है, रेत सा तन रह गया है। आम की यह डाल जो सूखी दिखी‚ कह रही है – अब …
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Suryakant Tripathi Nirala
October 6, 2015
Poems In Hindi
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बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु! पूछेगा सारा गाँव, बन्धु! यह घाट वही जिस पर हँसकर, वह कभी नहाती थी धँसकर, आँखें रह जाती थीं फँसकर, कँपते थे दोनों पाँव बन्धु! बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु! पूछेगा सारा गाँव, बन्धु! वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, फिर भी अपने में रहती थी, सबकी सुनती थी, सहती थी, देती थी …
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