मेजर ध्यानचंद: पहले ही मैच में ६ गोल, ओलिम्पिक खेलों में ३५ गोल और अंतर्राष्ट्रीय मैचों में ४०० गोलों का कीर्तिमान। यदि उनके द्वारा किये गए सारे गोलों को शामिल कर लिया जाए तो १००० से भी अधिक गोलों का आंकड़ा मेजर ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहलाने के लिए काफी है। मेजर ध्यानचंद सही मायने में हॉकी के पहले और आखिरी लीजैंड थे। उन्हें हाली में वही स्थान हासिल है, जो क्रिकेट में डॉन ब्रैडमैन को, फ़ुटबाल में पेले को और एथलैटिक्स में जे. सी. ओवंस को हासिल है।
मेजर ध्यानचंद: हॉकी के पहले व आखिरी लेजेंड
हॉकी की बॉल ध्यानचंद की हॉकी से क्यों चिपकी रहती थी, यह देखने के लिए एक बार तो उनकी स्टिक को तोड़ कर भी देखा गया था की कहीं उसमें चुम्बक तो नही है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के अपने पहले विदेशी दौरे में भारतीय टीम पांच मैचों की श्रृंखला में अपराजित रही थी। कुल ६० गोलों में ध्यानचंद ने अकेले ही ३५ से अधिक गोल मारे थे।
एम्स्टर्डम ओलम्पिक से पूर्व भारत ने ११ मैचों में ६३ गोल किए थे, जिनमें ३२ गोल ध्यानचंद के खाते में थे। उस विस्मयकारी प्रदर्शन के बाद ही उन्हें हॉकी का जादूगर के नाम से जाना जाने लगा था और हॉकी विशेषज्ञों तथा प्रैस ने युग के आश्चर्य के रूप में ध्यानचंद की प्रशंसा की थी। उसके बाद तो भारतीय हॉकी टीम में ध्यानचंद का चयन होना स्वाभाविक ही था।
१९२८ में भारत ने ध्यानचंद के समय में एम्स्टर्डम ओलम्पिक में पहली बार हिस्सा लिया था और हॉलैंड को ४-१ से हरा कर स्वर्ण पदक जीता था। उसके बाद भारत ने १९३२ में लॉस एञ्जल्स ओलम्पिक में अमरीका को २४-१ से हराया था, १९३६ में बर्लिन ओलम्पिक में जर्मनी को ८-१ से हरा कर स्वर्ण पदक प्रास किया था। वह समय वास्तव में ध्यानचंद युग के प्रारम्भ होने का था। ओलम्पिक में शानदार प्रदर्शन करने पर ध्यानचंद को विजार्ड की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था।
१९३६ में बर्लिन ओलम्पिक के दौरान तो एडोल्फ हिटलर ने मेजर ध्यानचंद को एक से बढ़ कर एक अनेक प्रलोभन और प्रस्ताव भी दिए थे लेकिन अपनी सादगी और सहजता से परिपूर्ण इस समर्पित खिलाड़ी ने न केवल अपना बल्कि देश का भी सम्मान बनाए रखते हुए हिटलर के सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया था।
हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का वास्तविक नाम ध्यान सिंह था। एक बार जर्नल करिअप्पा ने उनके खेल से प्रभावित होकर उनकी प्रशंसा की और उन्हें हॉकी का चाँद कहकर सम्बोधित किया था। तभी से उनके साथी उन्हें ध्यान सिंह के बजाय ध्यान चंद (ध्यानचंद) कहने लगे।
ध्यानचंद का जन्म २९ अगस्त १९०५ को इलाहाबाद के एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार में फौजी सूबेदार समक्षर सिंह दत्त के यहाँ हुआ था। पिता सेना में सिपाही थे। ध्यानचंद की रूचि खेलों में बिलकुल नही थी। उन्होंने नौवी कक्षा तक शिक्षा प्रास की थी और फिर सेना में भर्ती हो गए थे। सेना में भर्ती होने के बाद ही उनका रुझान खेलों की तरफ हुआ। उनकी रैजीमैट के सूबेदार मेजर तिवारी १९३६ बर्लिन ओलम्पिक के फाइनल मैच में ध्यानचंद में खेलों में उनकी रूचि उतपत्र की।
केवल हॉकी के खेल के कारण ही सेना ने ध्यानचंद को यथोचित सम्मान दिया और लगातार पदोत्रतियों से वे सिपाही से मेजर बन गए। सिपाही से करियर शुरू करने वाले ध्यानचंद १९५६ में मेजर के रूप में सेवानिवृत हुए और उसी वर्ष उन्हें सरकार ने पद्म भूषण से अलंकृत किया।
अपने शानदार स्टिक वर्क से पूरी दुनिया को सम्मोहित कर देने वाले ध्यानचंद ने भारतीय हॉकी को नए आयाम दिय और विश्व पटल पर जो छाप छोड़ी, वह शायद अब कसी खिलाड़ी ने लिए संभव नही होगा।
टीम में ध्यानचंद की उपस्तिथि मात्र से ही विपक्षी टीमें घबराने लगती थी। ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह हॉकी टिवंस के नाम से प्रसिद्ध थे। दोनों भाइयों में खेल की सूझबूझ और तालमेल इतना अच्छा था कि विपक्षियों में दोनों भाइयों कि जोड़ी को अग्रिम पंक्ति की खतरनाक जोड़ी माना जाता था। अपने छोटे कद के बावजूद ध्यानचंद की चाल – ढाल, भाव – भंगिमा गंभीर और सम्मान भरी थी।
BHARAT ke MAHAN-SPOOT hockey jadugar major DHYAN CHAND ko koti-koti pranam ..
JAI-HO…MAJOR DHYAN CHAND
janm diwas per HARDIK-BADHAI