दीपक की होली: होली के त्यौहार पर शिक्षाप्रद बाल कहानी

दीपक की होली: होली पर शिक्षाप्रद बाल कहानी

“इस बार होली खेलने के लिए मैं तुम्हारे घर ही आ जाउंगी” सिमी ने राहुल से कहा।

“हाँ, तुम्हारी छत बहुत बड़ी है। यहाँ से हमें आधा शहर तो यूँ ही दिख जाता है” मंजुल ने मुस्कुराते हुए कहा।

“मैं तो गुलाबी रंग का गुलाल लगाउंगी। मुझे गुलाबी रंग बहुत पसंद है” सलोनी ने खुश होते हुए कहा।

“कभी शीशे में शक्ल देखी है अपनी! ऐसा लगता है जैसे पूरे चेहरे पर किसी ने चारकोल पोत दिया हो” दीपक हँसते हुए बोला।

सलोनी का चेहरा उतर गया और उसकी आँखें डबडबा उठी।

दीपक की होली: मंजरी शुक्ला की होली के त्यौहार पर शिक्षाप्रद बाल कहानी

राहुल ने नाराज़ होते हुए कहा – “मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि आज भी गोरे और काले के बीच में अंतर किया जाता है”।

“हाँ, और तू ही कौन सा बड़ा गोरा है?” रिंकी ने अपनी बड़ी बड़ी आँखों से दीपक को घूरते हुए कहा।

“मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि सच बोलने में बुराई क्या है?” कहते हुए दीपक ने कंधे उचकाए।

सलोनी रूंधे गले से बोली – “मेरी थोड़ी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। शायद मैं कल होली नहीं खेलूं”।

“ओफ़्फ़ो, दोस्तों में हँसी मज़ाक चलता रहता है” अमित ने माहौल को हल्का बनाने की कोशिश करते हुए कहा।

पर सलोनी की आँखों में आँसूं भरे हुए थे और वह उन्हें रोकने की भरपूर कोशिश कर रही थी।

तभी दीपक बोला – “अच्छा चलो, अब जल्दी से बता दो कि परसों यानी होली के दिन कितने बजे हम सबको इकठ्ठा होना है ताकि हम सब समय से एक साथ यहाँ पर पहुँच जाए”।

मंजुल ने दीपक का हाथ पकड़ते हुए कहा – “वो सब तो हम तय कर लेंगे पर सबसे पहले तुम सलोनी से माफ़ी माँगों। हम में से किसी को भी जब भी कोई ज़रूरत होती है तो सबसे पहले सलोनी ही सबकी मदद करती है”।

“वो सब बातें सही हैं पर मैंने कोई झूठ नहीं कहा है जो मैं माफ़ी माँगू” दीपक ने लापरवाही से कहा।

अब सलोनी के सब्र का बाँध टूट गया और वह फूट फूट कर रोती हुई वहाँ से चली गई।

रिंकी ने दीपक को गुस्से से देखा और वह भी चल दी।

धीरे धीरे एक एक करके सभी दोस्त चले गए और सिर्फ़ राहुल और दीपक ही रह गए।

राहुल चिढ़ते हुए बोला – “अब मेरा तो घर ही है इसलिए मैं तो जाऊँगा नहीं, तो तू ही चला जा”।

“हाँ, हाँ, जा रहा हूँ पर तब भी मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मेरी गलती क्या है?” दीपक ने तुरंत कहा।

“तुम्हारी गलती ये है कि तुमने उसका दिल दुखाया है और रंग रूप तो हमने बनाये नहीं है ये तो… ” राहुल की बात पूरी होती इससे पहले ही दीपक झुंझलाते हुए बोला – “अब ज़्यादा उपदेश देने की ज़रूरत नहीं है, जा रहा हूँ मैं …” कहते हुए दीपक धड़धड़ाता हुआ सीढ़िया उतर कर चला गया।

जब वह घर पहुँचा तो बाहर से ही उसे पापा और कुछ लोगो के बात करने की आवाज़ें सुनाई दी।

दीपक को बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि पापा तो उसके सामने ही ऑफ़िस गए थे फ़िर वह इतनी जल्दी लौटकर कैसे आ गए और ये तीन चार गाड़ियाँ भी घर के बाहर खड़ी हैं।

वह लगभग दौड़ता हुआ घर के अंदर गया तो पापा के साथ कुछ लोगो को बात करते देखा।

पापा ने जैसे ही उसे देखा तो बोले – “अच्छा हुआ तू जल्दी आ गया। मुझे अभी वापस ऑफ़िस जाना है”।

दीपक कुछ पूछता इससे पहले ही पापा बोले – “तुम्हारी मम्मी छत से कपड़े लेने गई थी और उनका पैर फिसल गया है इसलिए उन्हें डॉक्टर को दिखाने आया था और उनके बिस्तर के पास ही दवाई रखी है जो याद से उन्हें खाना खाने के बाद दे देना”।

मम्मी के गिरने की बात सुनकर दीपक हवा की गति से अंदर के कमरे की ओर भागा।

मम्मी बिस्तर पर लेटी हुई थी।

“क्या हुआ मम्मी?” पूछते हुए दीपक को रोना आ गया।

“पैर में साड़ी फँसने के कारण गिर पड़ी और पैर में मोच आ गई” कहते हुए मम्मी ने दीपक के सिर पर प्यार से हाथ फेरा।

“बहुत दर्द हो रहा है क्या?” दीपक ने मम्मी के सूजे पंजे की ओर देखते हुए पूछा।

“वो तो कहो हड्डी नहीं टूटी ओर दर्द की दवाईयाँ है ना, कुछ दिन में बिलकुल ठीक हो जाएगा” मम्मी ने दीपक का हाथ पकड़ते हुए प्यार से कहा।

तभी पड़ोस वाली रीमा आंटी आ गई। दीपक रीमा आंटी को बहुत सम्मान देता था और उनसे बेहद प्रभावित भी था।

रीमा आंटी थी भी प्रशंसा के लायक, बिलकुल बगुले के सफ़ेद पंख जैसी गोरी…

रीमा आंटी मम्मी से बोली – “अरे अभी पता चला कि तुम्हारे पैर में चोट लग गई है”।

“हाँ, मम्मी के पैर में मोच आ गई है” दीपक उदास स्वर में बोला।

“ओह! मैं तो दो दिन बाद होने वाली होली की पार्टी में तुम्हें बुलाने आई थी” रीमा आंटी बोली।

मम्मी ख़ुशी से चहकते हुए बोली – “मै ज़रूर आउंगी। आज शाम को दवाई की दुकान वाला मेरे लिए “वॉकर” भी दे जाएगा। वैसे भी मैं घर पर अकेले पड़े पड़े बोर हो जाउंगी”।

रीमा आंटी की हँसी फूट पड़ी और वह ठहाका लगाकर हँसते हुए बोली – “अरे वाह, मेरी लंगड़ी घोड़ी ठुमक ठुमक कर चलेगी”।

मम्मी का चेहरा फक्क पड़ गया।

पर रीमा आंटी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा।

वह बेतहाशा हँस रही थी। अचानक ही वह उठ खड़ी हुई और बोली – “मेरी तो आदत है, मैं सच ही बोलती हूँ। अच्छा चलती हूँ। मुझे बहुत लोगो के घर जाना है”।

मम्मी कुछ कहने ही वाली थी कि रीमा आंटी कमरे से बाहर चली गई।

दीपक ने मम्मी की तरफ़ देखा। ना जाने क्यों मम्मी ने दीपक का हाथ पकड़ लिया और भरभराकर रो पड़ी।

दीपक सन्न बैठा था।

उसने रुलाई रोकते हुए मम्मी के आँसूं पोंछे और उन्हें पानी का गिलास और दवाई दी।

जब थोड़ी देर बाद मम्मी बोली – “मुझे अब सोना है शायद दवाई का असर है”।

दीपक ने मम्मी को चादर उड़ाई और कमरे का दरवाज़ा धीरे से बंद करके, आँसूं भरी आँखों से सलोनी के घर की ओर चल पड़ा।

इस होली में दीपक ने अचानक ही जैसे सारे रंग एक साथ ही देख लिए थे।

~ ‘दीपक की होली’ by डॉ. मंजरी शुक्ला

Check Also

Kabuliwala - Rabindranath Tagore Classic English Short Story

Kabuliwala: Bengali short story written by Rabindranath Tagore

Kabuliwala: My five years’ old daughter Mini cannot live without chattering. I really believe that …