डस्टबिन: एक नारी की पीड़ा पर हिंदी कविता

डस्टबिन: एक नारी की पीड़ा पर हिंदी कविता

डस्टबिन: एक नारी की पीड़ा पर हिंदी कविता – वैसे तो प्राचीन काल से ही दुनिया भर में महिलाओ को पुरुषों की अपेक्षा निम्न स्थान दिया जाता रहा है, परन्तु शिक्षा और ओद्योगिक विकास के साथ साथ विकसित देशो में महिलाओ के प्रति सोच में परिवर्तन आया और नारी समाज को पुरुष के बराबर मान सम्मान और न्याय प्राप्त होने लगा। उन्हें पूरी स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, सुरक्षा एवं बराबरी के अधिकार प्राप्त हैं। कोई भी सामाजिक नियम महिलाओ और पुरुषो में भेद भाव नहीं करता। हमारे देश में स्तिथि अभी भी प्रथक है, यद्यपि कानूनी रूप से महिला एवं पुरुषो को समान अधिकार मिल गए हैं। परन्तु सामाजिक ताने बाने में आज भी नारी का स्थान दोयम दर्जे का है। हमारा समाज अपनी परम्पराओ को तोड़ने को तय्यार नहीं है। जो कुछ बदलाव आ भी रहा है उसकी गति बहुत धीमी है। शिक्षित पुरुष भी अपने स्वार्थ के कारण अपनी सोच को बदलने में रूचि नहीं लेता, उसे अपनी प्राथमिकता को छोड़ना आत्मघाती प्रतीत होता है। यही कारण है की महिला आरक्षण विधेयक कोई पार्टी पास नहीं करा पाई। आज भी मां बाप अपनी पुत्री का कन्यादान कर संतोष अनुभव करते हैं। जो इस बात का अहसास दिलाता है की विवाह दो प्राणियों का मिलन नहीं है, अथवा साथ साथ रहने का वादा नहीं है, एक दूसरे का पूरक बनने का संकल्प नहीं है, बल्कि लड़की का संरक्षक बदलना मात्र है। क्योकि लड़की का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उसको एक रखवाला चाहिये।

उसकी अपनी कोई भावना इच्छा कोई मायने नहीं रखती। उसे जिस खूंटे बांध दिया जाय उसकी सेवा करना ही उसकी नियति बन जाती है। विवाह पश्चात् वर पक्ष द्वारा भी कहा जाता है की आपकी बेटी अब हमारी जिम्मेदारी हो गयी, आपके अधिकार समाप्त हो गए। अब मां बाप को अपनी बेटी को अपने दुःख दर्द में शामिल करने के लिय वर पक्ष से याचना करनी पड़ती है। उनकी इच्छा होगी तो आज्ञा मिलेगी वर्ना बेटी खून के आसूँ पीकर ससुराल वालों की सेवा करती रहेगी।

डस्टबिन: डॉ. मंजरी शुक्ला

डस्टबिन की तरह है ज़िंदगी मेरी

सपने बासी मन उदास
सबके चेहरों को चमकाते हुए
उनके अंदर की गंदगी लेते हुए
बासीपन की चादर ओढ़ कर

एक कोने में हमेशा से
गृहलक्ष्मी कहलाने के बावजूद
हमेशा उपेक्षित अपनों ही से
तो ख़्याल आया क्यों

ना खुद को झोंक दू
उस डस्टबिन में
जो अपने अंदर घर
भर का कूड़ा

करकट समेटे हुए
घर चमकाते हुए
पड़ा है चुपचाप
निर्लिप्त और उपेक्षित

कि उसे भी कोई पुचकारेगा कभी
और मैं तो उसके पास
जाकर बैठ भी नहीं सकती
सभी के अंदर के कचरे को

मुझे अपने अंदर
चुपचाप समेटे हुए
चलते फिरते रहना है
हर कोने को देखते हुए

सबके मन के अंदर के
कि कहीं कोई कचरा
सड़ तो नहीं रहा
किसी के भीतर…

~ ‘डस्टबिन’ poem by डॉ. मंजरी शुक्ला

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