बचपन की सीख: ईमानदारी पर प्रेरणादायक हिंदी बाल-कहानी

बचपन की सीख: ईमानदारी पर प्रेरणादायक हिंदी बाल-कहानी

बचपन की सीख: सर को जब भी वक्‍त मिलता वे हम बच्चों के बीच आ बैठते। कोई ऐसी कहानी सुनाते, जिसमें सीख होती, मनोरंजन होता।

आज भी ऐसा हुआ। सर बोले, “बच्चो, तुम सेठ दयाराम को जानते हो?”

“सर उन्हें कौन नहीं जानता। सारा शहर उनकी ईमानदारी का प्रशंसक है। लोग उनकी बात पर उनके हिसाब-किताब पर आंख मूंद कर विश्वास करते हैं।”

बचपन की सीख: गोविंद शर्मा

सर बोले, “पर वे सदा के लिए ऐसे नहीं थे। जब मैं यहां आया था तब दैनिक समाचारपत्र कुछ दुकानों पर ही आते थे। मैं भी अखबार पढ़ने सेठ दयाराम को दुकान पर जाता था। एक दिन बातों-बातों में मैंने उनसे कहा, “सेठ जी आपकी ईमानदारी की हर कोई चर्चा करता है । कहां से सीखा आपने ईमानदार बनना, बने रहना… ?”

सेठजी बोले, “आपको विश्वास नहीं होगा, पर सच यह है कि ईमानदारी का यह पाठ मुझे बारह साल के एक बच्चे ने पढ़ाया था।”

सेठ जी ने अपनी पूरी कहानी सुनाई।

“उन दिनों मेरी यह दुकान बहुत छोटी होती थी। ग्राहक भी बहुत कम आते थे। एक दिन काफी देर से मैं खाली बैठा परेशान हो रहा था, बोहनी भी नहीं हुई थी। अचानक एक बूढ़े बाबा आ गए। उन्होंने मुझसे कई तरह का सामान लिया और पूछा कितने पैसे दूं। मैंने जोड़ लगाकर कहा 345 रुपए। बिना कोई हिसाब लगाए उन्होंने मुझे 345 रुपए पकड़ा दिए। उनके जाने के बाद मैंने पुनः जोड़ लगाया। अरे यह क्या? मेरा पहला जोड़ गलत था। मैंने पूरे एक सौ रुपए ज्यादा ले लिए। मैं खुश हो गया। चलो, सुबह से खाली बैठा था। मुफ्त में ही वारे न्यारे हो गए। सोचने लगा, अब चाहे कोई ग्राहक न आए। यदि आया तो वह आज की अतिरिक्त कमाई होगी।”

“इतने में दस बारह वर्ष का एक बालक आया। उसने भी कई तरह के सामान की सूची मुझे थमा दी। मैंने उसका सारा सामान बांधा और 200 रुपए मांगे। उसने 200 रुपए दिए, सामान और बिल लिया और चलता बना, पर पांच मिनट बाद ही वापस आ गया। आते ही बोला, “अंकल लगता है आपने पढ़ाई ठीक से नहीं की। आपको जोड़ना भी नहीं आता। मैंने सोचा इससे भी ज्यादा रुपए ले लिए पर उसने अपनी जेब से रुपए निकालकर देते हुए कहा, “आपके जोड़ में पूरे पच्चीस रुपए की गलती है। इस तरह सौदा बेचोगे तो कितने दिन चलेगी दुकान।”

“मुझे आश्चर्य तो हुआ पर मैंने कहा, “छोटे बच्चे ईमानदार होते हैं। यदि तुम अपने घर पहुंच जाते तो…. !”

“तो बड़ी मुश्किल होती अंकल। यूं तो मेरी मां मुझे धूप में घर से बाहर निकलने देती पर ये रुपए वापस करने के लिए जरूर भगाती। अंकल हमें स्कूल में बताया गया है कि सीखने पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती है। आप भी इस उम्र में पढ़ना लिखना सीख सकते हैं। कम से कम जोड़ घटाव तो सीख ही लें।”

“उसकी इस सीख से मेरा मन बदल गया। मैंने दुकान बंद की और बस अड्डे की तरफ चल पड़ा क्योंकि बुजुर्ग किसी गांव के लिए बस पकड़ने की बात कर रहे थे।”

“मैंने देखा बस अड्डे पर चाय की दुकान पर वही बुजुर्ग बैठे हैं। मैंने जब उनसे कहा कि आपके साथ हिसाब करने में भूल हो गई है तो बोले, “लगता है कि तुम्हारे कुछ रुपए मेरी तरफ रह गए, पर इस समय मेरी जेब में बस किराए जितने ही रुपए हैं। मैं अगले चक्कर में तुम्हारे बाकी के रुपए दे दूंगा। विश्वास नहीं है तो सामान में से कुछ वापस ले लो।”

मैंने कहा, “हिसाब सें गलती तो है पर रुपए मेरे नहीं आपके निकलते हैं।” यह पकड़ो सौ रुपए।

उन बुजुर्ग के मुंह से इतना ही निकला, “ऐसे लोग भी हैं दुनिया में अभी… मास्टर जी वह दिन है और आज का दिन है। मैंने कभी भी ईमानदारी का पल्ला नहीं छोड़ा, नही कभी छोड़ंगा।”

फिर मास्टर जी ने हमसे कहा, “बच्चो, मैं भी तुमसे कुछ न कुछ सीखता रहता हूं। बताऊं क्या-क्या सीखा है?”

“नहीं सर, वरना हमारे में किसी को यह घमंड हो जाएगा कि वह गुरु है। हमें तो आप शिष्य ही रहने दें।”

इस पर सबकी हंसी गूंज उठी।

~ ‘बचपन की सीख‘ story by ‘गोविंद शर्मा

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