भिखारी ठाकुर ने दिलाई प्रसिद्धि, रामचंद्र माँझी बने चेहरा: जानिए क्या है लौंडा नाच, जिसे बिहार के थिएटरों की अश्लीलता निगल गई
भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी-बियोग, कलयुग प्रेम, गबरघिचोर, गंगा असनान, बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार’ जैसे नाटक लिखे और उनका मंचन किया। उनके योगदान के कारण ही भोजपुरी भाषा और संस्कृति को एक नई पहचान मिली।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का ‘लौंडा नाच’ देखते हुए एक वीडियो वायरल हो रहा है। उनके साथ ही बेटे तेज प्रताप, पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी, बिहार विधानसभा अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी, अब्दुल बारी सिद्दीकी, श्याम रजक जैसे लोग भी इस नाच का लुत्फ उठाते दिख रहे हैं। ये वीडियो वायरल हुआ, तो भोजपुरी क्षेत्रों का मशहूर ‘लौंडा नाच’ फिर से चर्चा में आ गया। लोग इसके बारे में जानकारी ढूँढने लगे।
ऐसे में मेरे एक जागरुक मित्र ने वॉट्सऐप पर वायरल हो रहा वीडियो भेजा और पूछा कि ये ‘लौंडा नाच’ आखिर होता क्यों है? क्या उसने जो सुना है कि इसमें नाचने वाले लोग ‘किन्नर’ होते हैं, ये सही बात है? चूँकि, सवाल का जवाब देना ही था, तो हमने सोचा कि क्यों न ‘लौंडा नाच’ के बारे में जानकारी विस्तार से दी जाए और आज की पीढ़ी में ‘लौंडा नाच’ को लेकर फैली भ्रांतियाँ भी दूर कर दी जाए।
क्या है लौंडा नाच, कैसे मिली सांस्कृतिक पहचान
यह नाच एक लोक नृत्य है जो बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और नेपाल के कुछ हिस्सों में प्रचलित है। इस नृत्य में पुरुष कलाकार महिलाओं के कपड़े पहनकर और महिलाओं की तरह नृत्य करके मनोरंजन करते हैं। इस नाच का आयोजन आमतौर पर शादी, जन्मदिन और अन्य समारोहों के अवसर पर किया जाता है। लौंडा नाच में विभिन्न तरह के पारंपरिक नाच-गान जैसे ठुमरी, कजरी, दादरा और चैती शामिल हैं। हालाँकि, लौंडा नाच पर बिहार के थिएटरों की अश्लीलता ने खूब असर डाला है।
वैसे इस नाच का इतिहास काफी पुराना है और यह कई तरह के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित रहा है। लौंडा नाच की शुरुआत के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है, लेकिन यह माना जाता है कि यह नृत्य प्राचीन काल से प्रचलित है। कुछ विद्वानों का मानना है कि लौंडा नाच की शुरुआत राजा-महाराजाओं के दरबारों में हुई थी, जहाँ पुरुष नर्तक महिलाओं के कपड़े पहनकर मनोरंजन करते थे। अन्य विद्वानों का मानना है कि लौंडा नाच की शुरुआत धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में हुई थी, जहाँ पुरुष नर्तक देवी-देवताओं के रूप में नृत्य करते थे। हालाँकि, इस नाच की बड़ी पहचान को सभी भिखारी ठाकुर से जोड़कर ही देखते हैं।
भिखारी ठाकुर ने दिलाई वैश्विक पहचान
भिखारी ठाकुर भोजपुरी के एक महान लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे। उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर भी कहा जाता है। उन्होंने भोजपुरी में कई नाटक, गीत और कविताएँ लिखीं। भिखारी ठाकुर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को उठाया। उन्होंने लौंडा नाच को एक लोक नृत्य से एक व्यावसायिक रूप में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में लौंडा नाच को एक आकर्षक और मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया। भिखारी ठाकुर के नाटकों के माध्यम से लौंडा नाच बिहार और अन्य क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया। उन्होंने लौंडा नाच को एक सम्मानजनक कला रूप के रूप में स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अपने नाटकों में लौंडा नाच के कलाकारों को एक सम्मानजनक भूमिका दी, जिसके कलाकारों को समाज में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त हुआ।
भिखारी ठाकुर के बिना लौंडा नाच की वर्तमान स्थिति शायद ही संभव हो पाती। भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी-बियोग, कलयुग प्रेम, गबरघिचोर, गंगा असनान, बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार’ जैसे नाटक लिखे और उनका मंचन किया। उनके योगदान के कारण ही भोजपुरी भाषा और संस्कृति को एक नई पहचान मिली।
रामचंद्र माँझी भी रहे बड़ा नाम, मोदी सरकार ने दिया पद्मश्री
भिखारी ठाकुर के शिष्य रहे और उनकी मंडली के अंतिम सदस्य रहे रामचंद्र माँझी का निधन 96 वर्ष की उम्र में साल 2023 सितंबर माह में हुआ। उन्हें भारत सरकार ने साल 2021 में पद्मश्री से सम्मानित किया। रामचंद्र माँझी ने इसे कला के साथ ही भिखारी ठाकुर का भी सम्मान बताया था। बता दें कि रामचंद्र माँझी 95 वर्ष की उम्र तक लौंडा नाच का मंचन करते रहे।
महज 10 वर्ष वर्ष की उम्र में भिखारी ठाकुर की मंडली में शामिल होकर अगले तीन दशक से अधिक समय तक उन्हीं के शागिर्द रहे रामचंद्र माँझी ने बाद में गौरीशंकर ठाकुर, रामदास राही, प्रभुनाथ ठाकुर, दिनकर ठाकुर, शत्रुघ्न ठाकुर की मंडलियों में काम किया और आखिर समय में वो जैनेंद्र दोस्त की रंगमंडली में भी रहे।
लौंडा नाच को लेकर फैली भ्रांतियाँ
दरअसल, ‘लौंडा नाच’ बिहार ही नहीं, पूर्वी यूपी, बंगाल और यहाँ तक कि नेपाल में भी प्रचलित है। हो सकता है कि नाम अलग-अलग हों। इसे बिहार की सांस्कृतिक कला का हिस्सा भी माना जाता है। शादी-विवाह, मुंडन, तिलक जैसे कार्यक्रमों में लौंडा नाच का आयोजन होता रहा है। इस नाच को करने वाले लोग प्रोफेशनल होते हैं। हालाँकि, लौंडा नाच को लेकर कई तरह की भ्रांतियाँ फैली हैं, जिन्हें दूर करने की जरूरत है। क्योंकि, इन भ्रांतियों के कारण ही लौंडा नाच के कलाकारों को अक्सर सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। वे समाज में एक सम्मानजनक स्थान पाने के लिए संघर्ष करते हैं।
अश्लीलता
‘लौंडा नाच’ को लेकर सबसे बड़ी भ्रांति है इसका अश्लील और भ्रष्ट होना। जबकि यह सच नहीं है। लौंडा नाच एक लोक नृत्य है जो बिहार और अन्य क्षेत्रों की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस नृत्य में महिलाओं के कपड़े पहनकर पुरुष नर्तक नृत्य करते हैं, लेकिन इसका उद्देश्य मनोरंजन करना है, अश्लीलता फैलाना नहीं।
कलाकारों का समलैंगिक होना
ये एक आम भ्रांति है कि लौंडा नाच के कलाकार समलैंगिक होते हैं। लौंडा नाच के कलाकार समलैंगिक हो सकते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं है। ज़्यादातर इस नाच के कलाकार सामान्य होते हैं और वे महिलाओं के कपड़े पहनकर सिर्फ मनोरंजन के लिए नृत्य करते हैं।
कुछ समय से लोकप्रियता में गिरावट
पिछले कुछ समय से लौंडा नाच की लोकप्रियता में गिरावट आई है। इसका कारण सिनेमा और आर्केस्ट्रा का उदय है, जिन्होंने लौंडा नाच के स्थान को ले लिया है। हालाँकि, कुछ कलाकारों और संगठनों ने लौंडा नाच को जीवित रखने के लिए प्रयास किए हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह नाच एक समृद्ध लोक कला रूप है जो बिहार और अन्य क्षेत्रों की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह नृत्य सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित रहा है। वहीं लौंडा नाच को लेकर कई तरह के विवाद भी रहे हैं, लेकिन यह एक लोक कला रूप है जिसे संरक्षित करने और बढ़ावा देने की जरूरत है।