सेठ लोभीराम बड़ा ही कंजूस आदमी था। वह कई-कई दिनों तक इसलिए भी नहीं नहाता था, कि साबुन कहीं जल्दी घिस न जाए। वह मैले-कुचैले कपड़े पहन कर ही अपनी दुकान पर बैठा रहता था। उसके नौकर उसकी कंजूसी की आदत से बहुत दुखी थे। वह दुकान पर बिना चुपड़ी रोटी और पानी जैसी पतली दाल के अलावा कुछ भी खाने के लिए नहीं मंगवाता था।
कंजूस आदमी: गोविन्द भारद्वाज
एक दिन दुकान पर काम करने वाले नौकरों ने लोभीराम को मूर्ख बनाने की ठान ली, ताकि उस कंजूस को कुछ सबक मिल सके। उन्होंने एक योजना बनाई। उनमें से एक नौकर उसके घर पहुंच गया और उसकी पत्नी से बोला, “मालकिन, आज कुछ लोग आपके मायके से आए हैं और दुकान पर मालिक के साथ बैठे उन्होंने आपको संदेश भिजवाया है कि आज वे मेहमानों के साथ दुकान पर ही भोजन करेंगे, इसलिए चार-पांच आदमियों का भोजन बनाकर मुझे दे दें।”
लोभीराम की पत्नी अपने मायके वालों की खबर सुनते ही फटाफट अनेक प्रकार के व्यंजन तैयार करने में जुट गई। नौकर वहां बैठा-बैठा मन ही मन मुस्करा रहा था। एक घंटे में मालकिन ने एक से बढ़कर एक व्यंजन तैयार कर दिए और उस नौकर को दे दिए।
भोजन लेकर नौकर तुरंत दुकान पर पहुंच गया।
दोपहर में जब भोजन का समय हुआ तो लोभीराम ने पूछा, “अरे आज भोजन घर से कोई लाया नहीं… क्या बात है?”
“बात-वात कुछ नहीं मालिक, आज मेरी शादी की सालगिरह है, इसलिए मैं ही आज आपका और अपने साथियों का खाना अपने घर से बनवाकर लाया हूं।” एक नौकर ने खाना परोसते हुए कहा।
लोभीराम को जब स्वादिष्ट भोजन की सुगंध आई तो उनकी लार टपकने लगी। उस कंजूस आदमी ने कई दिनों से ऐसा पकवान नहीं खाया था। उसकी भूख जाग उठी।
“अरे भैया जल्दी करो… बड़े जोर की भूक लगी हैं। पेट मे चूहे कबड्डी खेल रहे है।” जैसे ही भोजन की थाली सामने आई, टूट पड़े सेठजी। वह मन ही मन सोच रहा था कि “होंग लगी न फिटकरी… रंग चोखो ही चोखो”।
खाना खाने के बाद सेठ लोभीराम ने लम्बा डकार लेते हुए कहा, “बहुत-बहुत बधाई हो… तुम्हारी जोड़ी सलामत रहे”।
“बधाई किस बात की मालिक। सब आपका ही आशीर्वाद है… हम तो आपका ही दिया खा रहे हैं” नौकर ने कहा।
सेठ बोला, “सो तो है।”
शाम को सेठजी दुकान मंगल करके अपने घर पहुंचे। उसकी पत्नी ने पूछा, “अजी मेरे मायके से कौन-कौन आए थे… और उन्हें घर क्यों नहीं लाए?”
“कैसे और किसके मायके वाले… तुम किसकी बात कररही हो भाग्यवान?” लोभीराम ने झुंझलाते हुए पूछ।
पत्नी बोली, ”अजी मेरे मायके वाले, जिनके लिए तुमने कई तरह के पकवान मंगवाए थे दुकान पर।”
“किसके हाथ मंगवाए थे मैंने पकवान?” सेठ लोभीराम चिल्ला कर बोला।
“तुम ने ही तो रतिया को भेजा था दुकान से… वही ले गया था।” सेठानी ने भी उसी लहजे में जवाब दिया।
इतना सुनते ही सेठ जी ने अपना माथा पकड़ लिया। वह समझ गया कि जो भोजन उसे परोसा गया था, वह उसी के घर का था। कंजूस सेठ अपने ही नौकरों के हाथों बेवकूफ बन चुका था। वह सेठानी से बोला, “अरी भाग्यवान उन नालायको ने हमें मूर्ख बना दिया। सबसे ज्यादा तो तुम मूर्ख बनी हो, जो मायके वालों का नाम सुनते ही बनाकर भिजवा दिए कई तरह के पकवान। कभी मैंने बनवाया था ऐसा खाना?”
यह सुनकर वह कह उठी, “अजी आप बड़े कंजूस आदमी हैं न… इसलिए उन सबने मिलकर आपको सबक सिखाने के लिए यह सब नाटक किया है।”
“हाय राम मैं लुट गया… अपने नौकरों के हाथों” लोभीराम ने अफसोस जताते हुए कहा |