अनोखी दोस्त: देवांश गाँव आया और उसकी दोस्ती हो गयी नन्ही से

अनोखी दोस्त: देवांश गाँव आया और उसकी दोस्ती हो गयी नन्ही से

अनोखी दोस्त: देवांश के दादा जी और दादी जी गांव में जमीदार थे। एक दिन वह नदी के किनारे-किनारे टहल रहा था, अचानक उसकी दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी । वह अपने दोनों हाथों से कुछ खा रही थी।

देवांश दबे पांव उसके पास गया। उसने सोचा कि वह डर कर भाग जाएगी, मगर वह नहीं भागी। “अरे, तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता?” उसने गिलहरी से पूछा।

“अरे मत कहो मुझे… मेरा नाम नन्ही है नन्ही” गिलहरी ने जवाब दिया।

अनोखी दोस्त: गोविन्द भारद्वाज

“मेरा नाम है देवांश… तुम मुझे देबू कह सकती हो। इतनी छोटी होकर भी तुम्हें मुझ से डर क्यों नहीं लगा?” देवांश ने घुटनों के बल बैठते हुए पूछा।

“तुमसे डर इसलिए नहीं लगा कि तुम यहां रोजाना सुबह-सुबह घूमने आते हो… मैं तुम्हें पेड़ की टहनी पर बैठकर देखती हूं… और तुम तो अपने साथ दाने भी लाते हो… ।” नन्ही ने चंचलता से कहा।

“ओह… यह बात है… । यहां तो फलों के पेड़ खास नजर नहीं आते… तुम नीम की निबोली खा-खा कर ऊब नहीं गई?” उसने पूछा।

वह लपककर बोली, “तुमने तो मेरी मुंह की बात छीन ली… मैं यही तुम्हें बताने वाली थी।”

“चिंता मत करो… मेरे दादाजी ने फलों का बगीचा लगा रखा है… उसमें जामुन, आम के अलावा बहुत से फलों के पेड़ हैं” देबू ने बताया।

“तो तुम मुझे अपने बगीचे के आम लाकर दोगे… अभी तो आम का मौसम भी है?” नन्ही ने पूछा।

“तुम्हें लाकर भी दूंगा… और अपने साथ अपने बगीचे में भी ले चलूंगा, ताकि तुम अपनी पसंद के फल खा सको” देबू ने कहा।

“कब ले चलोगे देबू भैया… ?” नन्ही ने उछलते हुए पूछा।

“पहले मुझसे दोस्ती करो… ।” देवू ने कहा।

“तो यह बात है… ? चलो कर लेती हूं दोस्ती  पर तुम्हें कभी-कभी भैया भी कहूंगी” नन्ही बोली।

अनोखी दोस्त: देवांश गाँव आया और उसकी दोस्ती हो गयी नन्ही से
अनोखी दोस्त: देवांश गाँव आया और उसकी दोस्ती हो गयी नन्ही से

दूसरे दिन देवू उसके लिए एक आम लेकर गया… ।

“लो नन्ही, तुम्हारे लिए यह आम लाया हूं। हमारी अनोखी दोस्ती का पहला उपहार” देवू ने हंसते हुए कहा। नन्ही ने उसे लपक कर अपने दोनों पंजों में पकड़ा और खाने लगी।

“अभी यह थोड़ा कच्चा है।”

नन्ही ने चटकारे लेते हुए कहा।

“अभी गर्मी शुरू हुई है। धीरे-धीरे पक जाएंगे तो खाना” देबू ने बताया।

“पर बाजार में तो पके हुए आम खूब आ रहे हैं” वह बोली।

“बाजार में जो आम आ रहे हैं, वे पेड़ के पके आम नहीं हैं, उन्हें दवा से पकाया जाता है” देबू ने समझाया।

“गांव में तो तुम्हारा बहुत बड़ा घर होगा?” उसने पूछा।

“हां, घर तो बड़ा है… पर हम गांव में नहीं रहते। गांव में तो केवल दादाजी, दादीजी और मेरे चाचा का परिवार रहता है” देवू ने कहा।

“तो तुम कहां रहते हो?” नन्ही ने उत्सुकता से पूछा।

“मैं अपने मम्मी-पापा के साथ मुंबई में रहता हूं… जहां समुद्र है, लेकिन ऐसी कल-कल बहती नदी नहीं है… इतनी खुली जगह की बजाय संकरी गलियां हैं। छोटे-छोटे आंगन वाले घरों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतें हैं” देवू ने अपनी सारी बातें बता दीं।

“फिर तो तुम मुझे छोड़कर मुंबई चले जाओगे” नन्ही ने उदास होते हुए कहा।

“हां, बीस दिन बाद जाऊंगा… मुझे वहां जाकर स्कूल का होमवर्क भी करना है लेकिन मैं तुम्हें दादा जी के हवाले कर के जाऊंगा… मैंने उनसे तुम्हारे बारे में बात भी कर ली है” देवू ने कहा।

“तुम्हारी जब भी लंबी छुट्टी पड़े तो मुझसे जरूर मिलने आना… वरना हमारी दोस्ती टूट जाएगी” नन्ही ने मुंह बनाते हुए कहा।

“बिल्कुल आऊंगा… जरूर आऊंगा। चलो आज तुम्हें दादाजी से मिलाने ले चलता हूं… और बगीचा भी घूम आना” देबू ने उससे कहा।

नही बिना देरी किए,.. झट से देबू की हथेली पर चढ़कर बैठ गई। देवू और नन्हीं बतियाते-बतियाते गांव की तरफ चल दिए।

~ ‘अनोखी दोस्त‘ story by ‘गोविन्द भारद्वाज‘, अजमेर

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