बहुत समय पहले बंगाल में महाराजा कृष्णचन्द्र का राज्य था। उनके दरबार में बहुत सारे विदूषक थे। सबसे ज्यादा लोकप्रिय था – गोपाल। गोपाल नाई था लेकिन सब लोग उसे गोपाल भांड कहकर बुलाते थे। भांड यानी मसखरा, जो लोगों को हंसा सकता हो। अपने चुटकलों, हावभाव, टीका – टिप्पणी और महाराज या अन्य लोगों को मूर्ख बनाने के तरीको ने गोपाल को प्रसिद्ध कर दिया था।
गोपाल से पार पाना नामुनकिन था। न ही उसके हाथ कोई चालाकी – चुस्ती कर सकता था। गोपाल को सारा खेल पहले ही पता चल जाता और वह चतुराई से पासा पलट देता था। उस जमाने में लोग अजीबोगरीब अंधविश्वास पालते थे। एक तो खुद ही वे कुछ जानते – बुझते नही थे और वह जमाना भी ज्ञान – विज्ञान का नही था।
कई लोगों की तरह महाराजा भी यह मानते थे कि सुबह उठते ही जिस व्यक्ति का चेहरा वह सबसे पहले देखेंगे, वही व्यक्ति उनके उस दिन का समय निर्धारित करेगा। यदि उनका दिन अच्छा निकलता तो वह व्यक्ति शुभ माना जाता। अगले दिन उसे इनाम दिया जाता था। और अगर दिन में कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता था, तो वह व्यक्ति अमंगल का प्रतीक या राज्य के लिए खतरा हो जाता। अगले दिन महाराजा उसे दंड देते। संकट जितना गहरा होता, दंड उतना ही अधिक।
राज्य में सबको महाराजा के इस विशवास का पता था और सुबह – सुबह कोई भी उनके पास नही फटकता था। अगर कहीं स्वर्ण मुद्राएं, जमीन का टुकड़ा या अच्छी दुधारू गांय मिल जाती तब तो पौ – बारह थी, लेकिन दंड मिलने का भी तो डर था – बेंत भी पड़ सकते थे या फिर देशनिकाला भी दिया जा सकता था। इसलिए, कोई भी अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार नही था।
लेकिन गोपाल, महाराजा या उनकी सनक से डरता नही था। उसे तो अपने दंडित होने का भी डर नही था क्योंकि वह जानता था कि अपनी बुद्धि के बल पर वह हर मुस्किल आसान कर सकता है।
वैसे भी, उठने पर महाराजा अपने सेवकों और अंगरक्षकों या महारानी को ही देखते थे। इतनी सुबह महल में कोई भी आगंतुक तो आने से रहा। हाँ, कभी – कभी महामंत्री कोई जरुरी मसला लेकर महाराजा के पास जरूर आ जाते थे। ऐसी घड़ी में तो महाराजा को इनाम – सजा, सब भूल जाता था।
कभी – कभी महाराजा सुबह – सवेरे उठकर घूमने निकल जाते थे। कभी महल के भीतर ही फल – वाटिका या उद्यान में या नदी किनारे था फिर बाजार भी। उस दौरान आते – जाते वे किसी को भी मिल सकते थे।
जो भी सबसे पहले उनके सामने आता, डर के मारे उसके पसीने छूट जाते और वह सोचने लगता कि जाने महाराजा का आज का दिन कैसा बीतेगा? जाने उसे इनाम मिलेगा या दंड?
एक रोज महाराजा नदी किनारे घूमने चले गए। पौ बस फ़टी ही थी और किनारा भी सुनसान था।
गोपाल वैसे तो देर तक सोता था, लेकिन उस दिन उसके पेट में चूहे ऐसे दौड़े कि वह सुबह – सुबह ही उठ बैठा। उसका मन ताजा मछली खाने का हुआ और उसने सोचा कि नदी के किनारे बैठे मछुआरों से जाकर मछली खरीद ली जाए। वह जानता था कि सूर्योदय से पहले गए हुए मछुआरे उसी समय वापस आतें हैं। पर उस दिन वहां कोई नही था।
गोपाल यह देखकर बहुत हैरान हुआ। फिर उसने महाराज कृष्णचन्द्र को नदी किनारे घुमते हुए देखा।
महाराज ने भी उसे देखा। “अरे गोपाल!” वे चकित होकर बोले, “मै तो सोचता था कि तुम दोपहर से पहले बिस्तर से उठते ही नही।”
“प्रणाम, महाराज,” गोपाल बोला। “जी, वैसे तो मै देर से ही उठता हूँ। आज मेरे मन में जाने क्या आया, सोचा चलूँ, मै भी अपना भाग्य आजमाऊँ। इसी कारण यहाँ नदी किनारे आ गया।”
“मै कुछ समझा नही,” महाराज बोले, “अपने भाग्य का फैसल यहाँ कैसे करोगे?”
“मै जानता था कि आज सबसे पहले मै ही आपको मिलूंगा,” गोपाल चतुराई से बोला।
“तुम ऐसा कैसे जानते थे?” महाराज हैरान होकर बोले।
“बस, कभी – कभी पता चल जाता है, चुटकी बजाते ही…,” गोपाल बोला।
“मै समझा नही सकता। खैर, मुझे विशवास है कि आज मैंने सबसे पहले आप का शुभ चेहरा देखा है, इसलिए मेरा दिन बहुत अच्छा बीतेगा।”
“हाँ, हाँ, क्यों नही, क्यों नही,” महाराज प्रसन्न होकर बोले।
दोनों साथ – साथ महल की ओर चल पड़े। उन दिनों राजा का एक आम नागरिक के साथ चलना मामूली बात थी। कोई भी ऐसा देखकर हैरान नही होता था।
राजा को अधिकार था कि वह जिससे चाहे मिले, जहाँ चाहे मिले। और जनता भी यह नही सोचती थी कि उनका राजा जब भी निकले तो रथ पर सवार हो या कि अपने अंगरक्षकों से घिरा हो।
“भई गोपाल, तुम्हे याद तो है न कि आज सबसे पहले मैंने तुम्हारा चेहरा देखा है,” महाराज बोले। “देखते हैं, आज दिन कैसा बीतता है। तभी पता चलेगा कि तुम मेरे लिए शुभ हो या अशुभ। उसके अनुसार तुम्हे इनाम या दंड मिलेगा।”
“बिलकुल महाराज,” गोपाल आदरपूर्वक बोला, “देखते हैं, कौन ज्यादा शुभ है, आप या मै?”
“तुम्हारा मतलब?” महाराज ने तुनककर पूछा। “ज्यादा चतुर बनने की कोशिश न करो।”
“मै तो मसखरा हूँ, महाराज,” गोपाल ने हाथ बांधकर कहा, “मसखरे की बात का बुरा क्या मानना!”
जल्दी ही दोनों महल पहुँच गए। महाराज ने गोपाल को अपने कक्ष में आने का न्यौता दिया। गोपाल चुटकुलों का भंडार था – उसकी बातें सुनकर लोग, ख़ास तौर पर महाराज खुश हो जाते थे। जैसे ही वे सभी लोग बैठे, शाही हज्जाम आ गया।
“आइए महाराज, आपकी दाढ़ी बना दूँ,” हज्जाम मन ही मन शुक्र मना रहा था कि महाराज को दिखने वाला वह पहला व्यक्ति नही था।
“ठीक है,” महाराज बोले, “तुम दाढ़ी बनाओ। और गोपाल पिछली रात तुम जिस शादी में गए थे, क्यों न वहां का किस्सा हो जाए?”
गोपाल ने हमेशा की तरह अपनी कहानी बढ़ा – चढकर सुनानी शुरू कर दी। हर बात में मजाक, हर बात पर लतीफा। हँसते – हँसते महाराज ने पेट पकड़ लिया। हज्जाम भी हस रहा था। पहरेदारों और सेवकों सहित कमरे में सभी लोग हंस रहे थे।
गोपाल के चुटकले सुनते हुए जैसे ही महाराज हिले, हज्जाम का हाथ फिसल गया। और उस्तरा जाकर महाराज के गाल में लगा, जिससे बहुत ज्यादा खून बहना शुरू हो गया। हज्जाम डर के मारे थरथर काम्पने लगा। उसे विशवास था कि महाराज या तो उसे फांसी दे देंगे या फिर देशनिकाला। आखिर महाराज का खून बहा था और यह कोई साधारण बात नही थी।
महाराज के सेवकों ने तुरंत ही मरहम – पट्टी की और खून बहना बंद हो गया। सब चुप – से, सहमे से खड़े थे, सिवाय गोपाल के। वह पहले की तरह मुस्करा रहा था।