मध्यकाल में कई प्रसिद्ध सूफी संत हुए हैं, जिन्हें हिन्दू मुसलमान दोनों समान रूप से मानते थे। ये सूफी मुल्लों की तरह कठोर, निर्दयी, कट्टर और कूपमंडूक न थे। हिंदुओं को काफिर समझ कर उन के विरुद्ध जिहाद का नारा बुलंद नहीं करते थे, बल्कि हिंदुओं के धर्म, साहित्य, संस्कृति, रीतिरिवाज सब को आदर पूर्वक अपनाते थे। इसलिए सहज ही उन्होंने हिंदू समाज का मन मोह लिया। स्वाभाविक था कि उनकी यह लोक प्रसिद्धि कठमुल्लों को चुभती थी। ये कठमुल्ले ईर्ष्यावश सूफियों के विरुद्ध सुलतान के कान भरते रहते और निजामुद्दीन औलिया दिल्ली के सुप्रसिद्ध सूफी संत थे जिन को हिंदू – मुसलमान दोनों समान भाव से मानते थे लेकिन कठमुल्लों और सुलतान ने उन्हें पीड़ा देने में कोई कमी न रखी।
दिल्ली में बहुत दिनों से सनसनी फैली हुई थी। यह सनसनी मुगलों के किसी नए आक्रमण के कारण नहीं था अपितु इस बार संघर्ष का कारण राजधानी में ही उपस्तिथ था। यह संघर्ष भी राजगद्दी के लोभी दो सुलतानों या शहजादों में नहीं था अपितु हिंदुस्तान के एक शक्तिशाली सुलतान गियासुद्दीन तुगलक और एक सूफी फकीर शेख निजामुद्दीन औलिया में था। यह कहना कठिन है कि बादशाह और फकीर में से दिल्ली में किस का प्रभाव अधिक था। यदि बादशाह को अपनी सल्तनत, फौज, धनदौलत, खजाने पर घमंड था तो सूफी संत को अपनी फकीरी, सचाई, मस्ती, भक्ति और आत्मशक्ति पर भरोसा था।
बादशाह और फकीर दोनों के संबंध दिन पर दिन बिगड़ते गए। सुलतान ने दिल्ली से कुछ मील हट कर तुगलकाबाद बसाया। उसने अपनी राजधानी के लिए इस नगर और दुर्ग को बनवाने के लिए अपने खजाने खोल दिए थे। मजबूत चारदीवारी से घिरे इस सुंदर शहर में देखते ही देखते सुदृढ़ दुर्ग और ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं आसमान में सिर उठाने लगीं। हजारों मजदूर काम पर लगे थे। दूसरी ओर सूफी शेख निजामुद्दीन औलिया भी, पास ही गियासपुर नामक गांव में एक दरगाह बनवा रहे थे। बादशाह ने फकीर को नीचा दिखाने का संकल्प किया।
शेख निजामुद्दीन द्वारा बनवाई जा रही दरगाह पर काम करने वाले मजदूरों को सुलतान ने भय और लोभ दिखा कर दोगुनी मजदूरी दे कर तुगलकाबाद के शहर, किले तथा दूसरी इमारतों के निर्माण कार्य में लगा दिया। यह सूफी संत दूर दूर से जो भी कारीगर और मजदूर काम चलाने के लिए लाता, सुलतान उन्हें दोगुनी तिगुनी मजदूरी का लालच दे कर (और यदि वे लोभ में न आते तो उन्हें प्राणदंड का भय दिखा कर) तुगलकाबाद के निर्माण में खपा देता। दरगाह का निर्माण ठप्प हो गया, सुलतान के अहं को संतुष्टि मिली।
सुलतान द्वारा शेख निजामुद्दीन औलिया का यह उत्पीड़न सर्वविदित था। दिल्ली शहर में ही नहीं दूर-दूर तक उनकी प्रतिष्ठा थी। उनका आत्मबल, उनके चमत्कार के चर्चे सारे देश में फैले हुए थे। जनसाधारण की तो उन पर अपार श्रद्धा थी ही स्वयं सुलतान के अपने अमीर भी चोरीछिपे उन की कुटिया पर जा कर आशीर्वाद पाते थे, यद्यपि सुलतान के भय से वे इस बात को प्रकट नहीं करते थे।