“जो अच्छा काम करे” – कोई दरबारी बोला।
“जैसे?”
“मैंने एक मंदिर बनवाया है, जहां सैकड़ो लोग रोज जाकर पूजा करते हैं। जनहित के लिए मैंने यह एक अच्छा कार्य किया है। अतएव मैं अच्छा आदमी कहलाने का अधिकारी हूँ।”
“और किसने अच्छे-अच्छे कार्य किए हैं?” राजा ने अन्य दरबारियों से पूछा।
“मैंने एक तालाब बनबाया है, जिसमे आम लोग स्नान आदि करते हैं।” दूसरे दरबारी ने कहा।
तीसरा दरबारी भी झट से बोल उठा, “मैंने राहगीरों के ठहरने के लिए धर्मशाला बनबाई है। यह भी एक नेक कार्य हैं, इसलिए मैं भी एक नेक आदमी की श्रेणी में आता हूँ।”
फिर तो एक-एक कर सभी दरबारियों ने अपना कुछ न कुछ अच्छा कार्य बता कर अपने को अच्छा आदमी सिध्द करने की कोशिश की, मगर एक दरबारी चुपचाप बैठा रहा। वह कुछ भी नहीं बोला। जब राजा की निगाह उस उम्र पर गई तो राजा ने उससे पूछा “आप चुप क्यों हैं?”
“एक बार मैं एक पहाड़ी जंगल से गुजर रहा था कि कई डाकुओ ने मुझे घेर लिया। मेरे पास कुछ न पाकर क्रोधवश उन्होंने मुझे जान से मार डालना चाहा।” मैंने उनसे कहा, “मुझे दुःख है कि मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है। हां, मेरी जान लेकर आप सब सुखी हो सको तो मैं अपनी जान सहर्ष देने के लिए तैयार हूँ। सोचता हुँ, चलो मेरा जीवन किसी के काम तो आया मगर मृत्यु पहले मेरी एक सलाह सुन लो, इससे मेरी आत्मा को शांती मिलेगी।”
“कैसी सलाह?” डाकू सरदार ने पूछा।
“लूटपाट और हत्या का कार्य इसके बाद आप सब बिल्कुल छोड़ दें। इतनी महनत अगर अच्छे कार्यो में करेंगे तो भगवान आपको सब तरह की सुख-सुविधाएं और शांती देगा। मैं समझता हूँ कि अब तक आप सबने लूटपाट और हत्या करके सच्चा सुख अपने जीवन में कभी नहीं पाया होगा और न सच्ची शांती ही आप सबको कभी मिली होगी। मुझे जो कहना था, कह दिया। इसे मानना, आप सब पर है। चलिए, अब भगवान से मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि वह इन डाकुओं को सद्बुद्धि प्रदान करे।”
अगले ही क्षण डाकुओं का सरदार मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बोला, “अपने हमारी आँखे खोल दी। मैं अब आपकी जान नहीं लूंगा। आपकी नेक सलाह मुझे स्वीकार है। सचमुच लूटपाट और खून-खराबे से हमें आज तक सिर्फ परेशानी और अशांति ही मिली है। कभी सुख-चैन से हम नहीं रहे। अब सब आपके सुझाव के अनुसार सही कार्य करके ही जीवन-यापन करेंगे, आज से यह कुत्सित कार्य एकदम छोड़ देंगे।” दरबारी ने राजा को बताया।
दरबारी क्षण भर रुक कर फिर बोला, “और सचमुच उन सबने उस दिन से लूटपाट का काम छोड़ दिया। मेरे जीवन की यही एक स्मरणीय घटना है। इसमें अगर आपको कुछ अच्छा नजर आए तो कहिए।”
अपनी बात खत्म कर वह दरबारी राजा की ओर देखने लगा। राजा थोड़ी देर चुप रह कर बोला, “जो आदमी स्वय को अच्छा और दूसरों को बुरा कहता है, दरअसल वह अच्छा आदमी है ही नहीं, अच्छा वही है जो अपनी अच्छाई का बुरे आदमी पर ऐसा असर डाले कि वह अच्छा बन जाएं। डाकुओं को बुराई की राह से अच्छाई की राह पकड़ा कर आपने जो नेक कार्य किया है वह सचमुच आपको अच्छा आदमी सिद्ध करता है। इसे आप अत्युक्ति न समझें।”
अच्छे आदमी के संबंध में राजा की जो विचारधारा थी, उसने वहां मौजूद अन्य दरबारियों, जो अपने को अच्छा आदमी सिद्ध करने में लगे हुए थे, सबकी गलतफहमी दूर कर दी।
शिक्षा: स्वयं को होशियार और दूसरों को मूर्ख समझने की प्रवत्ति को छोड़े। प्रय्तेक व्यक्ति में कुछ अच्छाई तो कुछ बुराई होती हैं। आप उसकी अच्छाई को ग्रहण करें और बुराई को त्याग दें। यही जीवन का सार हैं।