गाल पे काटा - ज़िया उल हक़ कासिमी

गाल पे काटा – ज़िया उल हक़ कासिमी

माशूक जो ठिगना है तो आशिक भी है नाटा
इसका कोई नुकसान, न उसको कोई घाटा।

तेरी तो नवाज़िश है कि तू आ गया लेकिन
ऐ दोस्त मेरे घर में न चावल है न आटा।

तुमने तो कहा था कि चलो डूब मरें हम
अब साहिले–दरिया पे खड़े करते हो ‘टाटा’।

आशिक डगर में प्यार की चौबंद रहेंगे
सीखा है हसींनों ने भी अब जूडो कराटा।

काला न सही लाल सही, तिल तो बना है
अच्छा हुआ मच्छर ने तेरे गाल पे काटा।

इस ज़ोर से छेड़ा तो नहीं था उसे मैंने
जिस ज़ोर से ज़ालिम ने जमाया है तमाचा।

जब उसने बुलाया तो ‘ज़िया’ चल दिये घर से
बिस्तर को रखा सर पे, लपेटा न लपाटा।

∼ ज़िया उल हक़ कासिमी

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