विज्ञान और मानव मन (कुरुक्षेत्र से) - रामधारी सिंह दिनकर

विज्ञान और मानव मन (कुरुक्षेत्र से) – रामधारी सिंह दिनकर

पूर्व युग–सा आज का जीवन नहीं लाचार
आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार
यह समय विज्ञान का, सब भाँति पूर्ण, समर्थ
खुल गये हैं गूढ़ संसृति के अमित गुरु अर्थ।

वीरता तम को सँभाले बुद्धि की पतवार
आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत, भाप
हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप

मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश
और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश
यह प्रगति निस्सीम! नर का यह अपूर्व विकास
चरण–तल भूगोल! मुठ्ठी में निखिल आकाश।

किंतु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही निःशेष
छूट कर पीछे गया है रह, हृदय का देश
नर मनाता नित्य नूतन बुद्धि का त्यौहार
प्राण में करते दुखी हो देवता चीत्कार

चाहिये उनको न केवल ज्ञान
देवता हैं माँगते कुछ स्नेह, कुछ बलिदान
चाँदनी की रागिनी कुछ भोर की मुस्कान
नींद में भूली हुई बहती नदी का गान

धूल कोलाहल थकावट धूल के उस पार
शीत जल से पूर्ण कोई मन्दगामी धार
वृक्ष के नीचे जहाँ मन को मिले विश्राम
अदमी काटे जहाँ कुछ छुट्टियाँ कुछ शाम

कर्म–संकुल लोक–जीवन से समय कुछ छीन
हो जहाँ पर बैठ नर कुछ पल स्वयं में लीन
ले चुकी सुख–भाग समुचित से अधिक है देह
देवता हैं माँगते मन के लिये लघु गेह।

∼ रामधारी सिंह ‘दिनकर’

About Ramdhari Singh Dinkar

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ‘दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।

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