गाँव जाना चाहता हूँ: रामावतार त्यागी

गाँव जाना चाहता हूँ: रामावतार त्यागी

ओ शहर की भीड़ अब मुझको क्षमा दो
लौट कर मैं गाँव जाना चाहता हूँ।

तू बहुत सुंदर बहुत मोहक
कि अब तुझसे घृणा होने लगी है
अनगिनत तन–सुख भरे हैं शक नहीं है
किंतु मेरी आत्मा रोने लगी है
गाँव की वह धूल जो भूली नहीं है
फिर उसे माथे लगाना चाहता हूँ।

कीमती पकवान मेवे सब यहाँ हैं
गाँव के गुड़ की महक लेकिन नहीं है
शाम आकर्षक दुपहरी भी भली है
किंतु अब वे मस्तियों के दिन नहीैं हैं
गाँव से चलते हुए जो भी दिया था
वह वचन जाकर निभाना चाहता हूँ।

बाजरे की बाल–भुट्टे ज्वार मेरी
अब दुबारा टेरने मुझको लगी है
फूस वाला घर इशारा कर रहा है
और गाएँ हेरने मुझको लगी हैं
छद्म काफी दिन तलक ओढ़े रहा हूँ
आज उससे मुक्ति पाना चाहता हूँ।

ओ शहर की भीड़ अब मुझको क्षमा दो
लौट कर मैं गाँव जाना चाहता हूँ।

रामावतार त्यागी

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One comment

  1. अखिलेश अवस्थी

    जिसने समूची निष्ठा, ईमानदारी, मेहनत और साहस के साथ परिवर्तन का संघर्ष किया हो और सूरत ए हाल बदलने को तैयार न हो तो यही स्वर निकलते हैं। कभी पढ़ी थी यह रचना आज ढूंढ कर पढ़ी। पराजय में सम्बल ढूंढने के लिए। पढ़ कर आत्मसंतोष मिलता है कि तुम हो क्या। इतना पराक्रमी व्यक्तित्व जब लौट कर गाँव जाने की बात करता है। सच है। यही सच है। बहुत कुछ है यहां लेकिन वह सब नहीं जिसे हम बेवजह में ढूंढते रहे। सजाते रहे और लोग मिटाते रहे।