रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की कविता ‘रे प्रवासी जाग’
भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली‚
प्रेम से झुक–झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली।
दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण–तृण जगाता‚
फिर उदय की वायु का वन में सुपरिचित नाद आया।
रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।
व्योम–सर में हो उठा विकसित अरुण आलोक शतदल‚
चिर–दुखी धरणी विभा में हो रही आनंद–विह्वल।
चूम कर प्रति रोम से सर पर चढ़ा वरदान प्रभु का‚
रश्मि–अंजलि में पिता का स्नेह–आशीर्वाद आया।
रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।
सिंधु–तट का आर्य भावुक आज जग मेरे हृदय में।
खोजता उदगम् विभा का दीप्तमुख विस्मित हृदय में।
उग रहा जिस क्षितिज–रेखा से अरुण‚ उसके परे क्या ?
एक भूला देश धूमिल–सा मुझे क्यो याद आया।
रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।
∼ ‘रे प्रवासी जाग’ poem by रामधारी सिंह ‘दिनकर’
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (अंग्रेज़ी: Ramdhari Singh Dinkar, जन्म: 23 सितंबर, 1908, बिहार; मृत्यु: 24 अप्रैल, 1974, तमिलनाडु) हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, कवि एवं निबंधकार थे। ‘राष्ट्रकवि दिनकर’ आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। उनको राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देने वाली ओजस्वी कविताओं के कारण असीम लोकप्रियता मिली। दिनकर जी ने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेज़ी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
शब्दार्थः
प्रणति ∼ नमस्कार
पादपों ∼ वृक्ष
प्राची ∼ पूरब दिशा
व्योम–सर ∼ सरोवर रूपी आकाश
शतदल ∼ कमल
धरणी ∼ धरती
विभा ∼ रात