है मन का तीर्थ बहुत गहरा – वीरबाला भावसार

है मन का तीर्थ बहुत गहरा।
हंसना‚ गाना‚ होना उदास‚
ये मापक हैं न कभी मन की गहराई के।
इनके नीचे‚
नीचे‚
नीचे‚
है कुछ ऐसा‚
जो हरदम भटका करता है।

हंसते हंसते‚ बातें करते‚ एक बहुत उदास
थकी सी जो निश्वास‚
निकल ही जाती है‚
मन की भोली गौरैया को
जो कसे हुए है भारी भयावना अजगर‚
ये सांस उसी की आती है‚
है जिसमें यह विश्वास
नहीं हूं मैं वह कुछ।
ये तो चिंताओं पीड़ाओं के अंधड़ हैं।
जो हर वसंत को पतझड़ करने आते हैं।
मन के इनसे कुछ गहरे रिश्ते नाते हैं।

पर इनसे हट कर‚ बच कर कुछ
इक स्वच्छ सरोवर भी है मन में अनजाना‚
जिस तक जाना कुछ मुश्किल है।

जब किसी पुनीता वेला में कोई यात्री
संवेदन का पाथेय संभाले आता है
इस मन के पुण्य सरोवर पर‚
दो चार सीढ़ियां
और उतर कर‚
और उतर कर‚
मन तड़ाग पर छाए अजगर‚ अंधड़ को
केवल अपनी लकुटी के बल पर
जीत या कि मोहित कर के‚
बढ़ जाता है इस मन के मान सरोवर तक‚
मन का जादूई तड़ाग
तुरत कमलों से भर भर जाता है‚
ऐसे ही पुलक क्षणों में
कोई अपना सा हो जाता है।
है मन का तीर्थ बहुत गहरा।

∼ डॉ. वीरबाला भावसार

About Veerbala Bhavsar

डॉ. वीरबाला भावसार (अक्टूबर 1931 – अगस्त 2010) स्वतंत्र्ता से पूर्व जन्मे रचनाकारों की उस पीढी से है, जिन्होंने प्रयोगवाद व प्रगतिवाद के दौर में अपनी रचना-यात्र प्रारम्भ की तथा आधुनिक मुक्त छंद की कविता तक विभिन्न सोपान से गुजरते हुए कविता कामिनी के सुकुमार स्वरूप को बनाए रखा। छायावादियों की तरह का एक रूमानी संसार कविता म बसाए रखना, इस प्रकार के रचनाकारों की विशिष्टता है। इस दौर में हिन्दी साहित्य में कई बडे रचनाकारों ने गद्य गीतों की रचना की। डॉ. वीरबाला भावसार द्वारा रचित इस संकलन की कुछ कविताओं यथा ‘भोर हुई है’, ‘मैं निद्रा में थी’, ‘वैरागिनी’, ‘तुलिका हूँ’ तथा ‘बाती जलती है’ आदि को गद्य गीत या गद्य काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।

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