Indian civilization owes its existence to the mighty Ganges originating in Himalaya. Ganga is the daughter of Himalaya. Here is an excerpt from a lovely poem by Makhanlal Chaturvedi, telling how the river transforms the great northern Indian planes as it flows to the ocean. Poet exhorts Himalaya to give Ganga to Saagar in Kanyadaan…
उसकी दौड़ लखो मत टोको‚
लौटे? – यह न सधेगा रुकना
दौड़‚ प्रगट होना‚ फिर छुपना‚
अगम नगाधिराज‚ जाने दो‚ बिटिया अब ससुराल चली।
तुम ऊंचे उठते हो रह–रह
यह नीचे को दौड़ी जाती‚
तुम देवों से बतियाते यह‚
भू से मिलने को अकुलाती‚
रजत मुकुट तुम धारण करते‚
इसकी धारा‚ सब कुछ बहता‚
तुम हो मौन विराट‚ क्षिप्र यह‚
इसका वाद रवानी कहता‚
तुमसे लिपट‚ लाज से सिमटी‚ लज्जा विनत निहाल चली‚
अगम नगाधिराज‚ जाने दो‚ बिटिया अब ससुराल चली।
डेढ़ सहस्र मील से इसने
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीं‚
तरल तारिणी तरला ने
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीं‚
श्रद्धा से दो बातें करती‚
साहस पर न्यौछावर होती‚
धारा धन्य कि ललच उठी है‚
मैं पंथिनी अपने घर होती‚
हरे–हरे अपने आंचल कर‚ पट पर वैभव डाल चली‚
अगम नगाधिराज‚ जाने दो‚ बिटिया अब ससुराल चली।
यह हिमगिरि की जटाशंकरी‚
यह खेती हर की महरानी‚
यह भक्तों की अभय देवता‚
यह तो जन जीवन का पानी!
इसकी लहरों से गर्वित ‘भू’
ओढ़े नयी चुनरिया धानी‚
देख रही अनगिनित आज यह‚
नौकाओं की आनी–जानी‚
इसका तट–धन लिये तरणियां‚ गिरा उठाए पाल चली‚
अगम नगाधिराज‚ जाने दो‚ बिटिया अब ससुराल चली।
शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे‚
लिये हुए छविमान हिमालय‚
मंत्र–मंत्र गुंजित करते हो‚
भारत को वरदान हिमालय‚
अगम वेद से‚ निगम शास्त्र तक‚
भू के ओ अहसान हिमालय‚
उच्च‚ सुनो सागर की गुरुता
कर दो कन्यादान हिमालय।
पाल मार्ग से सब प्रदेश‚ यह तो अपने बंगाल चली‚
अगम नगाधिराज‚ जाने दो‚ बिटिया अब ससुराल चली।
∼ माखनलाल चतुर्वेदी
शब्दार्थ:
नगाधिराज ∼ पर्वतों के राज हिमालय
क्षिप्र ∼ चंचल
तरिणी ∼ नाव