जब तुम आओगी – मदन कश्यप

नहीं खुली है वह चटाई
जिसे लपेट कर रख गई हो कोने में
एक बार भी नहीं बिछी है वह चटाई
तुम्हारे जाने के बाद,
जिसे बिछाकर धूप सेंकते थे हम

जो अँगीठी तुमने जलाई थी
चूल्हे में उसी की राख भरी है
चीज़ें यथावत् पड़ी हैं अप्रयुक्त

तुम्हारे जाने के साथ ही
मेरे भीतर का एक बहुत बड़ा हिस्सा
जहाँ का जहाँ ठहर गया था
मैं तभी से भूखा हूँ

जब तुम आओगी
तुम्हारे साथ आए
मिक्की मिक्कू की बेखौफ हँसी की ऊष्मा से
मेरे अकेलेपन की बर्फ पिघल जाएगी

जब तुम आओगी
तुम्हारे हाथ की बनी अच्छी चाय पिऊँगा
और बढ़िया खाना खाऊँगा
जब तुम आओगी
मौसम कोई भी होगा, अच्छा लगेगा

जब तुम आओगी
सिर्फ तभी
आँखों की भाषा का प्रयोग करूँगा

जब तुम आओगी
और चीज़ों पर पड़ी महीनों की गर्द झाड़ोगी
चीज़ें
मुस्कुराकर तुम्हारा स्वागत करेंगी।

∼ मदन कश्यप

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