नमक का क़र्ज़ - डॉ. मंजरी शुक्ल

नमक का क़र्ज़ – डॉ. मंजरी शुक्ल

चारों ओर से धमाकों की आवाज़ आ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो दीपावली हो, पर यह पटाखों की नहीं बल्कि हथगोलों और बंदूकों की आवाज़े थी। सन्नाटे को चीरती जब किसी जवान की बन्दूक चलने की आवाज़ आती तो मानों पनघट और चौबारे भी थरथरा उठते। इन्ही के बीच दस वर्षीय नन्हा बालक टीपू अपनी बूढी और अंधी दादी से चिपक कर सोने की कोशिश कर रहा था। दहशत और मौत का भय उसकी आँखों में साफ़ नज़र आ रहा था क्योंकि वह जानता था कि उसकी झोपडी किसी भी पल किसी हथगोले का निशाना बन सकती है। हर दूसरे दिन वह गाँव के किसी आदमी को बिना किसी अपराध के मौत के मुहँ मैं जाता देखता और उसके पीछे रोते बिलखते परिवार रह जाते। जब कभी बमबारी नहीं हो रही होती, तो वह चैन से अपनी दादी के साथ सोता, पर यह सुकून भरी नींद उसे बहुत कम ही नसीब हो पाती थी।

एक दिन टीपू रोज की तरह दादी की खाना बनाने में मदद कर रहा था क्योंकि दादी को सामान टटोल कर इकठ्ठा करने में बहुत समय लग जाता था। तभी दादी ने कहा – “टीपू, मुझे यह लकड़ियाँ कुछ सीली मालूम पड़ रही हैं, जरा पास में ही जाकर कुछ सूखी टहनियां ले आना और दूर बिलकुल मत जाना।” टीपू यह सुनकर बहुत खुश हो गया, क्योंकि दादी उसे झोपड़ी से बाहर जाने ही नहीं देती थी। उनकी झोपड़ी सीमा के नज़दीक थी, इसलिए कब बमबारी हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता था। उसने इन्ही नफरतों की आंधी के चलते अपना भरा पूरा परिवार खो दिया था, और अब वह टीपू को किसी कीमत पर नहीं खोना चाहती थी। टीपू झोपड़ी के पीछे की ओर जाकर टहनियां ढूँढने लगा तो उसे झाड़ियों में कुछ हलचलसी लगी। वह उस ओर बढ़ा तो उसने देखा कि एक घायल सैनिक पड़ा हुआ था। उसकी वर्दी जगह जगह से फटी हुई थी और उसके घावों से खून बह रहा था। बाल बिलकुल रूखे और चेहरे पर मिट्टी की परत जमी हुई थी। एकपल को तो वह उस सैनिक का डरावना रूप देखकर डर गया, पर दूसरे ही पल उसे अपने पिताजी की याद आ गई, जो उसे हमेशा हिम्मत और बहादुरी से काम करने के लिए कहते। वह थोड़ा और आगे बढ़ा और गौर से सैनिक को देखने लगा। लहुलुहान चेहरा, अधखुली आँखें और सूखे पपड़ी भरे होंठ, वह दर्द से रह रहकर कराह रहा था। ऐसा लग रहा था मानो उसे कई दिन से भोजन और पानी भी नहीं मिला हो। तभी सैनिक ने धीरे से अपनी आँखेंखोली और टीपू की ओर आशा भरी नज़रों से देखकर बोला – “पानी…”

टीपू ने इधर उधर देखा, फिर दौड़कर अपनी झोपडी से एक बर्तन में पानी ले आया। उसने सैनिक को जैसे तैसे सहारा देकर उठाया और पानी का बर्तन उसके मुहँ से लगा दिया। सैनिक एक ही साँस में सार पानी गटागट पी गया। पानी पीकर जैसे उसके भीतर नए प्राणों का संचार हो गया। उसकी आँखों में चमक आ गई। टीपू को यहदेखकर बहुत अच्छा लगा। उसने पुछा – “तुम कहाँ से आये हो?”

सैनिक ने यह सुनकर एक फीकी मुस्कान के साथ टीपू को देखा और चुप हो गया।

टीपू ने कहा – “वो देखो, सामने मेरी झोपड़ी हैं। वहाँ पहुंचकर तुम्हें खाना भी मिलेगा।”

सैनिक ने यह सुनकर टीपू का नन्हा हाथ थाम लिया और बड़ी ही मुश्किल से लगभग घिसटते हुए किसी तरह झोपड़ी तक पहुँच गया।

अपनी दादी को सैनिक के बारे में बताता हुआ टीपू बोला – “दादी, इनके घावों से बहुत खून बह रहा है।”

दादी एक दयालु और अनुभवी महिला थी। उन्होंने तुरंत जड़ी बूटियों का काढ़ा बनाकर उसे पिलाया और हल्दी का लेप उसके घावों पर लगा दिया। फिर उसने जल्दी से खाना बनाकर दाल भात सैनिक को बड़े प्यार के साथ परोसा।

सैनिक खाने पर भूखे शेर की भाँती टूट पड़ा और देखते ही देखते उसने चावल का आखरी दाना तक चाट कर डाला। उसकी आँखों में असीम तृप्ति का एहसास था और उसका रोम रोम टीपू और उसकी दादी के लिए कृतज्ञ था। पर अगले ही पल वह शर्मिंदा होते हुए बोला – “तीन दिन से मैंने अन्न का दाना भी नहीं खाया था इसलिए खाते समय होश ही नहीं रहा कि आप लोगो लिए कुछ बचा ही नहीं हैं।”

यह सुनकर दादी प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली – “तुमसे मिलकर मुझे मेरे बेटे की याद आ गई और अगर बेटा पेटभर के भोजन कर ले तो माँ का पेट तो क्या आत्मा तक तृप्त हो जाती है।”

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