हमेशा छुई-मुई और नाजुक लगने वाली श्रीमतियां भी महंगाई के नाम पर गुस्से से फनफना उठती हैं। उनकी मुट्ठियां बंध जाती हैं। बेचारे ‘श्रीमान जी’ थोड़े और बेचारे हो जाते हैं। सरकार गृहस्थी को कोपभाजन बन जाती है। कभी लहसुन तो कभी प्याज, कभी आलू तो कभी चीनी उसकी भेंट ले लेते हैं। इससे हमारी आस्था लोकतंत्र में हमेशा बनी रहती है। महंगाई सरकारों के आने और जाने का बहाना बन जाती है। एक यही चीज ऐसी जिस पर सारे देश की एक राय बन जाती वर्ना कहीं भाषा तो कहीं जाति, धर्म, वर्ग आदि के नाम पर अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग चलता है। इस तरह देखा जाए तो महंगाई सारे देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखती है। राष्ट्र की एकता के लिए यह महंगाई किसी वरदान से कम नहीं है। महंगाई मनोरंजन का भी सस्ता एवं सर्वसुलभ साधन है। भारतवासी कुश्ती देखने के बड़े शौकीन होते हैं। सरकार और महंगाई का बैर जग जाहिर है। जब भी जनता के पेट में दर्द होता है, सरकार उसे आश्वासन का सिरप पिला देती है कि हम महंगाई के खिलाफ लड़ेंगे। सुन कर जनता को कुछ पल के लिए राहत मिल जाती है। वह नंगी आखों से सरकार और महंगाई का मल्ल युद्ध देखती है। सरकार ललकार रही है, “अरे ओ बेहया! बेशर्म!! बेगैरत!!! बाहर निकल आज मैं तुझे धूल में मिला दूंगी।” महंगाई भी कहां पीछे रहने वाली वह भी अट्टहास करती है “हा..हा..हा..हा..अरे चोट्टी! तू मुझे धूल में क्या मिलाएगी? तू तो मेरे एक ही वार में खुद मिट्टी में मिल जाएगी।” और ऐसा होता भी है एक सरकार जाती है तो दूसरी आ जाती है। फिर भी महंगाई अकेली अकेली ही मैदान में जमी रहती है। वह बाजार के साथ ब्याह कर आई है। उसे बाजार से कोई अलग नही कर सकता। महंगाई का स्याह पक्ष ही जनता के समक्ष परोसा जाता रहा है। इसके उजले पक्ष की तरफ तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता। महंगाई सेहत के लिए तो किसी परमानैंट टॉनिक से कम नहीं है। आदमी इसकी चिंता में रात-दिन घुलता रहता है। इससे उसके शरीर पर अनावश्यक चर्बी नहीं चढ़ पाती। उसकी काया स्थूलतम आकार नही ले पाती। इससे उसे उच्च रकतचाप, मधुमेह या दिल की बीमारियां नहीं घेरती। हर दिन बढ़ती महंगाई कुंवारी कन्या की तरह उसे चैन नही लेने देती। इससे वह आलसी या निष्क्रिय होने से बचा रहता है। कार होते हुए भी पैट्रोल या डीजल की बढ़ती कीमतें अगर आदमी को पैदल चलने को प्रेरित करती है तो इसमें उसका फायदा ही है। पैदल यात्रा से तो लाभ ही लाभ है। बचत भी होती है और सेहत भी बनती है।
इसी तरह खाद्य पदार्थों की आसमान छूती कीमतें आदमी को चटोरा होने से रोकती हैं। मिष्ठान, पकवान, तला-भुना, खट्टा-मीठा स्वास्थ्य के लिए कितना घातक है। डाक्टर रोज जनता को आगाह करते हैं कि अति पौष्टिक भोजन से बचो। हो सके तो उपवास रखो या आज की भाषा में डायटिंग करो। जो असर डाक्टरों की सलाह नही करती वह महंगाई कर देती है। आदमी चटर-पटर खाना भी चाहे तो उसकी जेब उसे इसकी इजाजत नहीं देती। इस तरह यह महंगाई जन स्वास्थ्य की सबसे मुफीद दवा है। भोगवादी संस्कृति पर अगर लगाम लगाती है तो महंगाई। आदमी मजबूरन रोगी से त्यागी और भोगी से योगी और सादे जीवन की विचारधारा का पैरोकार बन जाता है।
महंगाई प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। यह तरक्की के दरवाजे खोलती है। आदमी दो कमाता है तो चार की दरकार होती है, चार कमाता है तो आठ की। इस तरह वह धन कमाने के नए-नए तरीके अपनाता है। किसी आफिस में है तो रिश्वत के रेट बढ़ा देता है या कमीशन का परसेंटेज बढ़ा देता है। गबन करने की जुगाड़ लगाता या कोई बड़ा घोटाला करने की फिराक में रहता है। इससे व्यवस्था में गति बनी रहती है। भविष्य के प्रति एक अज्ञात भय हर आदमी को मन में कायम रहता है जिससे वह किसी भी तरह से सात जन्मों की व्यवस्था में लगा रहता है। इसी को पढ़े-लिखे लोगों की भाषा में विकास कहते हैं।
~ प्रेमस्वरूप गंगवार
यदि आपके पास Hindi / English में कोई poem, article, story या जानकारी है जो आप हमारे साथ share करना चाहते हैं तो कृपया उसे अपनी फोटो के साथ E-mail करें। हमारी Id है: submission@sh035.global.temp.domains. पसंद आने पर हम उसे आपके नाम और फोटो के साथ यहाँ publish करेंगे। धन्यवाद!