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क्षमावाणी दिवस: जैन संस्कृति में क्षमा का पर्व

क्षमावाणी से अपने अहम को करें दूर

Kshamavani (क्षमावाणी) or “Forgiveness Day” is a day of forgiving and seeking forgiveness for the followers of Jainism. Digambaras (दिगंबर) celebrate it on the first day of Ashvin Krishna month of the lunar-based Jain calendar. Śvētāmbaras (श्वेतांबर) celebrate it on Samvatsari, the last day of the annual Paryushana festival. which coincides with the Chaturthi, 4th day of Shukla Paksha in the holy month of Bhadra (भादो). “Micchami Dukkadam” is the common phrase when asking for forgiveness. It is a Prakrit phrase meaning “May all the evil that has been done be fruitless”.

अहंकार के अतिरिक्त और कोई अज्ञानी नहीं है और जिस ज्ञान को हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह भी हमारे अहंकार को ही मजबूत करता है। इसलिए अहंकार का टूटना जरूरी है।

भादो (भाद्रपद) का महीना जैन धर्म के अनुयायियों के लिए बेहद पवित्र महीना होता है। जैन समुदाय के दोनों संप्रदाय – दिगंबर और श्वेतांबर, के लिए यह पूरा महीना आत्मशुद्धि और सार्वभौम क्षमा को समर्पित है। भादो के महीने का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है – पर्यूषण, जो श्वेतांबर जैनों के लिए 8 और दिगम्बर जैनों के लिए 10 दिनों का होता है। श्वेतांबर जैन समुदाय के लिए पर्यूषण पर्व 8 दिनों का होता है, जिसका अंत संवत्सरी पर होता है। संवत्सरी के अगले दिन दिगम्बर जैनों के दस दिन के पर्यूषण शुरू होते हैं। पर्यूषण का सीधा मतलब है खुद के पास आना।

पर्यूषण पर्व तप-त्याग-संयम और क्षमा का पर्व है। ज्यादातर लोग उपवास के जरिए इस साधना को पूरा करते हैं। पर्यूषण जैन संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है। सही मायने में यह एक अध्यात्मिक पर्व है, जोकि आत्मसाधाना की ओर लेकर जाता है। इस पर्व की आराधना आत्मराधना के रूप में की जाती है। इसमें हृदय की गहराई से अनुष्ठान का कार्य किया जाता है। इसमें साधक आत्म अवगाहन करता है और इसके परिणाम स्वरुप उसका आत्मपरिष्कार हो जाता है। इसके बाद वह खुद को धन्य समझता है। जैनागमों की मानें, तो पर्यूषण अनादिकालीन पर्व है। यह पर्व हमें जीवन में सार्थक मार्ग पर आगे बढने के लिए प्रेरित भी करता है।

पर्यूषण में तप से करें विशेष आराधना:

पर्यूषण की अवधि में तप के माध्यम से विशेष आराधना की जाती है। यह कहा भी गया है कि ‘तवेण परिसुज्झइ‘ तप आत्मशोधन की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप ऐसे माध्यम हैं, जिनके जरिए चतुष्टय अध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मनुष्य जीव मोक्षरूप से सदगति पाते हैं।

इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि जैसे साबुन और जल के द्वारा वस्त्र को मैलमुक्त बनाया जाता है, वैसे ही साधक तप और उसके विविध अंगों की आराधना द्वारा मानव अपनी आत्मा का परिष्कार करता है। वर्तमान में प्रचलित परम्परा में मौन व्रत पर सर्वाधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है। गौर से देखें, तो समझ सकेंगे कि यह एक कठिन तप है। इसके लिए विशेष उत्साह और सहिष्णुता की आवश्यकता होती है। कुछ लोग इसे अनशन की भी संज्ञा देते हैं, लेकिन अनशन मात्र अनशन बनकर ही रह जाए, तो साधक को तप का पूरा लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है। इसलिए इसके साथ-साथ साधक को उसके सहयोगी तत्वों पर भी विचार करने को कहा गया है। तप के सहयोगी तत्व ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रस परित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग आदि हैं।

महावीर जी ने कहा है कि अहंकार के अतिरिक्त और कोई अज्ञान नहीं है और जिस ज्ञान को हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह भी हमारे अहंकार को ही मजबूत करता है। इसलिए अहंकार का टूटना जरूरी है। जीवन में हम जितना जानने लगते हैं, हमें उतना ही ख्याल आता है कि मैं सर्वज्ञानी हूँ। जबकि यह सही मायने में अज्ञानता का सूचक है। इससे सिर्फ और सिर्फ मैं ही मजबूत होता है। इसलिए इस पर्यूषण पर्व के दौरान हमें अपने अहंकार को भी जड़ से खत्म करने की जरूरत है। महावीर जी जिसे ज्ञान कहते हैं, वह अहंकार के खत्म होने पर ही हासिल होता है। इस फर्क को ठीक-से समझ लेना बेहद जरूरी है जवीन में मैं की कोई सीमा नहीं होती है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी आत्मा को मैं से मुक्त करें। परमात्मा असीम है, वही सत्य है।

तप का हर भेद अपने आप में है संपूर्ण साधना:

तप का हर भेद अपने आप में एक सम्पूर्ण साधना है। लेकिन स्वाध्याय और ध्यान को तप का एक सरल, सरस और सर्वगम्य उपाय बताया गया है। तप के साथ स्वाध्याय और ध्यान से साधक की आंतरिक और बाहरी सहिष्णुता बढ़ जाती है।

ऐसा कहा गया है कि स्वाध्याय तपस्वी के तप का प्रथम आधार होना चाहिए। स्वाध्याय दो तरके के होते हैं। पहले के अंतर्गत आगमों और अध्यात्मिक पुस्तकों को पढना जरूरी माना गया है। जबकि दूसरे में एकान्त में स्थिर चित्त मन से आंख मूंदकर ध्यान करना होता है। इसमें खुद को समझना होता है। स्वयं के अध्ययन से साधक जीवन के यथार्थ को बेहतर तरीके से समझ पाता है। इस तरह से वह अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी हो जाता है। इसे आत्म जागरण भी कहा गया है।

इसके अलावा दूसरा प्रमुख तत्व ध्यान है। वर्तमान दौर में ध्यान को और अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है। इसके अभाव में जीवन को सही दिशा देना संभव नहीं है। आज जिस ध्यान के प्रति लोगों में अभिरुचि बढ़ रही है बढ़ रही है, उसी ध्यान को ढाई हजार साल पहले भगवान महावीर ने आत्म-जागरण, आत्म साक्षात्कार और आत्मनन्द के लिए जरूरी बताया था। वह खुद भी साधना अवधि में लीन रहते थे। आहार, विहार और नीहारादि क्रियाओं में भगवान सिमित समय बिताते थे। इसके अलावा पूरा समय ध्यान में लीन रहते थे। आज भी तीर्थंकरों के की प्रतीक ध्यान में ही मिलते हैं, उनमें से ध्यान भगवान महावीर स्वामी की साधना का अनिवार्य अंग था, इस तथ्य को आज तक किसी ने अस्वीकार नहीं किया।

आगमों में कहा गया है कि मुनि को हर दिन दोनों समय में कम से कम 6 घंटे ध्यान साधना में लीन रहना चाहिए। भगवान महावीर के बाद उनकी शिष्य परम्परा में भी ध्यान साधना निरन्तर चलती रही। पर्यूषण की आराधना में स्वाध्याय के साथ-साथ ध्यान साधना भी की जाए, तो पर्यूषण की सफलता का अनुभव होने लगता है। सही मायने में ये बातें शब्दों से नहीं, बल्कि अनुभवों से महसूस की जा सकती है। इसलिए इसे अनुभव का विषय कहा गया है। इसलिए ध्यान को पुरातन काल से अहम माना गया है। ध्यान की अनुभूति में गोते लगाने से जीवन सफल हो जाता है। इसके साथ-साथ मानव को उपवास, रात्रि भोजन का त्याग, शील का पालन, शास्त्र श्रवण, साधर्मि सेवा का भी पालन करना चाहिए। इसके माध्यम से ध्यान के मार्ग पर आसानी से चला जा सकता है।

जब आप पर्यूषण की साधना में रम जाते हैं, तो इसके परिणाम स्वरूप आपके भीतर क्षमा और प्रेम जैसी भावनाओं का विस्तार हो जाता है। जब आप उपवास, स्वाध्याय और ध्यान में लीन होकर जीवन को जीने लगेंगे, तो आपके भीतर क्षमा और प्रेम जैसे महागुणों का वास हो जाएगा। इसे जीवन संस्कार भी कहा जाता है। इसके बिना मानव मानव जीवन का कोई महत्व भी नहीं रह जाता है।

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