शिकागो धर्म सम्मेलन, 1893 में दिया गया भाषण
स्वामी विवेकानंद पर कविता
अमरीकी भाई बहनो कह, शुरू किये जब उद्बोधन।
धर्म सभा स्तब्ध हुई थी, सुनकर उनका सम्बोधन॥
आया उस प्राचीन देश से, जो संतो की है नगरी।
पाया हूँ सम्मान यहाँ जो, भरी हर्ष से मन गगरी॥
मेरा है वो धर्म जिसे सब, कहते धर्मो की माता।
धरा गगन में होने वाली, हर हलचल की वो ज्ञाता॥
करता हूँ नत शीश सभी को, तृप्त हृदय स्वीकार करें।
हिन्द क्षेत्र का प्रतिनिधि हूँ मैं, सब मेरा आभार धरें॥
यहाँ उपस्थिति वक्ताओं को, धन्यवाद हूँ मैं देता।
मान दिया है पूरब को जो, उसे मुदित मन मैं लेता॥
सहिष्णुता है धर्म हमारा, कर्म हमारा सहिष्णुता।
मानस में जो बसता है वो, मर्म हमारा सहिष्णुता॥
ऐसा धर्म हमारा जिससे, सहनशील हम बन जाते।
सब धर्मो के जो हैं पीड़ित, उन्हें शरण हम दे पाते॥
सत्य मान हम सब धर्मो को, देते हैं सम्मान यहाँ।
खुले हृदय से स्वागत करते, कभी करें अपमान कहाँ॥
मुझे गर्व मैं उस संस्कृति से, जिसने सबको अपनाया।
शेष बचे पारसियों को भी, गले लगा कर बढ़वाया॥
उद्धरित करता श्लोक यहाँ इक, बचपन से जो सब गाते।
लाखों प्राणी प्रतिदिन जिसको, निर्मल मन से दोहराते॥
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव॥
गीता का ये श्लोक मैं अद्भुत, सम्मेलन को बतलाऊँ।
नश्वर है ये सारी धरती, सबको ये है समझाऊँ॥
जैसे नदियाँ घट घट चल कर, मिल जाती हैं सागर से।
वैसे ही सब जीव अंत में, मिलते नटवर नागर से॥
ये यथा मां प्रपद्धन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वतर्मानुवर्तन्ते मनुषयाः पार्थ सर्वशः॥
जो भी प्रभु की ओर बढ़ेगा, उसको गले लगायेंगें।
मार्ग कोई कैसा भी गढ़ ले, सब उन तक ही जायेंगें॥
विश्व एक परिवार हमारा, सबके स्वामी हैं ईश्वर।
ज्ञात उन्हें हैं कर्म सभी के, अंतर्यामी है ईश्वर॥
हठधर्मी सब राज कर चुके, बहुत दिनों तक धरती पर।
सिसक चुकी है मानवता भी, बहुत दिनों तक धरती पर॥
हिंसा उनका मूल धर्म है, नाश सभ्यतायें होती।
खून से जब वो नहलाते तब, चीख चीख धरती रोती॥
नाश करो अब दानवता का, मानवता तब हो विकसित।
असुर शक्तियाँ भय में डूबे, जन जन सारे हों शिक्षित॥
करता हूँ उम्मीद यही मैं, समय आ गया वो अब है।
एक है ईश्वर एक है धरती, धर्म सनातन ही सब है ॥
आज प्रात जो ध्वनि घंटे की, सम्मेलन में गूंजी थी।
देने को थी मान सभी को, सर्व धर्म से ऊँची थी॥
उस ध्वनि से ही कुंद करें सब, तलवारों की धारों को।
तोड़ लेखनी फेंक सभी दें, लिखती जो अंगारो को॥
धर्म को मानो, धर्म को पूजो, पर अंधे तुम नहीं बनो।
दानवता से बिना डरे सब, मानवता के लिए ठनो।
एक लक्ष्य साधो जीवन में, दिन प्रतिदिन फिर बढ़े चलो।
कटुता का हो सर्वनाश सब, नवपथ ऐसा गढ़े चलो॥