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सच हम नहीं सच तुम नहीं – जगदीश गुप्त

सच हम नहीं सच तुम नहीं, सच है सतत संघर्ष ही। संघर्ष से हट कर जिये तो क्या जिये हम या कि तुम, जो नत हुआ वह मृत हुआ‚ ज्यों वृन्त से झर कर कुसुम, जो पंथ भूल रुका नहीं‚ जो हार देख झुका नहीं‚ जिसने मरण को भी लिया हो जीत‚ है जीवन वही, सच हम नहीं सच तुम …

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साक्षात्कार – श्रीप्रकाश शुक्ल

ऍम एस सी मैथ्स के प्रविष्टि हेतु चयन होने थे गुप्ता जी दाखिल हुए सामान्य कद चेहरा भोला साथ पुस्तकों से भरा खद्दर का झोला प्रश्न पूछे जाते गुप्ता जी उत्सुकता से उचकते फिर बैठ जाते गुप्ता जी उत्तर जानते थे अकुलाते भाषा की दुरुहता से बता नहीं पाते थे अक्स्मात् टूट पड़ा शब्दों में मुखरित यों फूट पड़ा “कछु …

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सपन न लौटे – उदय भान मिश्र

बहुत देर हो गई सुबह के गए अभी तक सपन न लौटे जाने क्या बात है दाल में कुछ काला है शायद उल्कापात कहीं होने वाला है डरी दिशाएं दुबकी चुप हैं मातम का गहरा पहरा है किसी मनौती की छौनी सी बेबस द्रवित उदास धरा है ऐसे में मेरे वे अपने सपन लाडले जाने किन पहाड़ियों से, चट्टानों से …

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समोसे – घनश्याम चन्द्र गुप्त

बहुत बढ़ाते प्यार समोसे खा लो‚ खा लो यार समोसे ये स्वादिष्ट बने हैं क्योंकि माँ ने इनका आटा गूंधा जिसमें कुछ अजवायन भी है असली घी का मोयन भी है चम्मच भर मेथी है चोखी जिसकी है तासीर अनोखी मूंगफली‚ काजू‚ मेवा है मन–भर प्यार और सेवा है आलू इसमें निरे नहीं हैं मटर पड़ी है‚ भूनी पिट्ठी कुछ …

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सपनों का अंत नहीं होता – शिव बहादुर सिंह भदौरिया

सपने जीते हैं मरते हैं सपनों का अंत नहीं होता। बाँहों में कंचन तन घेरे आँखों–आँखों मन को हेरे या फिर सितार के तारों पर बेचैन उँगलियों को फेरे– बिन आँसू से आँचल भीगे कोई रसवंत नहीं होता। सोने से हिलते दाँत मढ़ें या कामसूत्र के मंत्र पढ़ें चाहे खिजाब के बलबूते काले केशों का भरम गढ़ें– जो रोके वय …

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हम जीवन के महा काव्य – देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’

हम जीवन के महा काव्य हैं केवल छंद प्रसंग नहीं हैं कंकड़ पत्थर की धरती है अपने तो पाँवों के नीचे हम कब कहते बंधु! बिछाओ स्वागत के मखमली गलीचे रेती पर जो चित्र बनाती ऐसी रंग–तरंग नहीं हैं। तुमको रास नहीं आ पायी क्यों अजातशत्रुता हमारी छिप–छिप कर जो करते रहते शीत युद्ध की तुम तैयारी हम भाड़े के …

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हो चुका खेल – राजकुमार

हो चुका खेल थक गए पांव अब सोने दो। फिर नन्हीं नन्हीं बूंदें फिर नई फसल फिर वर्षा ऋतु फिर ग्रीष्म वही फिर नई शरद। सोते से जगाया क्यों मुझको क्यों स्वप्न दिखाए मुझको मुझे फिर से स्वप्न दिखाओ मुझे वो सी नींद सुलाओ। जो बन पाया सो रखा है जो जुट पाया सो रखा है जब जी चाहे तब …

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हे सांझ मइया – शलभ श्रीराम सिंह

शंख फूंका सांझ का तुमने जलाया आरती का दीप आंचल को उठा कर बहुत धीमे और धीमे माथ से अपने लगा कर सुगबुगाते होंठ से इतना कहा– हे सांझ मइया… और इतने में कहा मां ने– बड़का आ गया बहन बोली : आ गये भइया। और तुमने गहगहाई सांझ में फूले हुए मन को संभाले हाथ जोड़े, फिर कहा… हे… …

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हवाएँ ना जाने – परमानन्द श्रीवास्तव

हवाएँ ना जाने कहाँ ले जाएँ। यह हँसी का छोर उजला यह चमक नीली कहाँ ले जाए तुम्हारी आँख सपनीली चमकता आकाश–जल हो चाँद प्यारा हो फूल–जैसा तन, सुरभि सा मन तुम्हारा हो महकते वन हों नदी जैसी चमकती चाँदनी हो स्वप्न डूबे जंगलों में गन्ध–डूबी यामिनी हो एक अनजानी नियति से बँधी जो सारी दिशाएँ न जाने कहाँ ले …

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हरी मिर्च – सत्यनारायण शर्मा ‘कमल’

खाने की मेज़ पर आज एक लम्बी छरहरी हरी मिर्च अदा से कमर टेढ़ी किये चेहरे पर मासूमियत लिये देर से झाँक रही मानो कह रही सलोनी सुकुमार हूँ जायका दे जाऊंगी आजमा कर देखिये सदा याद आऊंगी प्यार से उठाई उँगलियों से सहलाई ओठों से लगाई ज़रा सी चुटकी खाई अरे वह तो मुंहजली निकली डंक मार कर सारा …

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