सूने घर में कोने कोने मकड़ी बुनती जाल। अम्मा बिन आंगन सूना है बाबा बिन दालान‚ चिठ्ठी आई है बहिना की सांसत में है जान‚ नित नित नये तकादे भेजे बहिना की ससुराल। भइया तो परदेस बिराजे कौन करे अब चेत‚ साहू के खाते में बंधक है बीघे भर खेत‚ शायद कुर्की जब्ती भी हो जाए अगले साल। ओर–छोर छप्पर …
Read More »सोने के हिरन – कन्हैया लाल वाजपेयी
आधा जीवन जब बीत गया बनवासी सा गाते रोते तब पता चला इस दुनियां में सोने के हिरन नहीं होते। संबंध सभी ने तोड़ लिये चिंता ने कभी नहीं छोड़े सब हाथ जोड़ कर चले गये पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े। सूनी घाटी में अपनी ही प्रतिध्वनियों ने यों छला हमे हम समझ गये पाषाणों के वाणी मन नयन नहीं …
Read More »स्मृति बच्चों की – वीरेंद्र मिश्र
अब टूट चुके हैं शीशे उन दरवाज़ों के जो मन के रंग महल के दृढ़ जड़ प्रहरी हैं जिनको केवल हिलना–डुलना ही याद रहा मस्तक पर चिंता की तलहटियाँ गहरी हैं कोई निर्मम तूफान सीढ़ियों पर बैठा थककर सुस्ताकर अंधकार में ऊँघ रहा ऊपर कोई नन्हें–से बादल का टुकड़ा कुछ खोकर जैसे हर तारे को सूंघ रहा यह देख खोजने …
Read More »फूटा प्रभात – भारत भूषण अग्रवाल
फूटा प्रभात‚ फूटा विहान बह चले रश्मि के प्राण‚ विहग के गान‚ मधुर निर्झर के स्वर झर–झर‚ झर–झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज‚ मानो अंबर की सरसी में फूला कोई रक्तिम गुलाब‚ रक्तिम सरसिज। धीरे–धीरे‚ लो‚ फैल चली आलोक रेख धुल गया तिमिर‚ बह गयी निशा; चहुँ ओर देख‚ धुल रही विभा‚ विमलाभ कान्ति। सस्मित‚ विस्मित‚ खुल गये द्वार‚ हँस रही …
Read More »पथ-हीन – भारत भूषण अग्रवाल
कौन सा पथ है? मार्ग में आकुल–अधीरातुर बटोही यों पुकारा कौन सा पथ है? ‘महाजन जिस ओर जाएं’ – शास्त्र हुँकारा ‘अंतरात्मा ले चले जिस ओर’ – बोला न्याय पंडित ‘साथ आओ सर्व–साधारण जनों के’ – क्रांति वाणी। पर महाजन–मार्ग–गमनोचित न संबल है‚ न रथ है‚ अन्तरात्मा अनिश्चय–संशय–ग्रसित‚ क्रांति–गति–अनुसरण–योग्या है न पद सामर्थ्य। कौन सा पथ है? मार्ग में आकुल–अधीरातुर …
Read More »नींद भी न आई (तुक्तक) – भारत भूषण अग्रवाल
नींद भी न आई, गिने भी न तारे गिनती ही भूल गए विरह के मारे रात भर जाग कर खूब गुणा भाग कर ज्यों ही याद आई, डूब गए थे तारे। यात्रियों के मना करने के बावजूद गये चलती ट्रेन से कूद गये पास न टिकट था टीटी भी विकत था बिस्तर तो रह ही गया, और रह अमरुद गये। …
Read More »मैं और मेरा पिट्ठू – भारत भूषण अग्रवाल
देह से अलग होकर भी मैं दो हूँ मेरे पेट में पिट्ठू है। जब मैं दफ्तर में साहब की घंटी पर उठता बैठता हूँ मेरा पिट्ठू नदी किनारे वंशी बजाता रहता है! जब मेरी नोटिंग कट–कुटकर रिटाइप होती है तब साप्ताहिक के मुखपृष्ठ पर मेरे पिट्ठू की तस्वीर छपती है! शाम को जब मैं बस के फुटबोर्ड पत टँगा–टँगा घर …
Read More »वह युग कब आएगा – बेधड़क बनारसी
जब पेड़ नहीं केवल शाखें होंगी जब चश्मे के ऊपर आंखें होंगी वह युग कब आएगा? जब पैदा होने पर मातमपुरसी होगी जब आदमी के ऊपर बैठी कुरसी होगी वह युग कब आएगा? जब धागा सुई को सियेगा जब सिगरेट आदमी को पियेगा वह युग कब आएगा? जब अकल कभी न पास फटकेगी जब नाक की जगह दुम लटकेगी वह …
Read More »विदा की घड़ी है – राजनारायण बिसरिया
विदा की घड़ी है कि ढप ढप ढपाढप बहे जा रहे ढोल के स्वर पवन में, वधू भी जतन से सजाई हुई–सी लजाई हुई–सी, पराई हुई–सी, खड़ी है सदन में, कि घूँघट छिपाए हुए चाँद को है न जग देख पाता मगर लाज ऐसी, कि पट ओट में भी पलक उठ न पाते, हृदय में जिसे कल्पना ने बसाया नयन …
Read More »क्या कहा? – जेमिनी हरियाणवी
आप हैं आफत‚ बलाएं क्या कहा? आपको हम घर बुलाएं‚ क्या कहा? खा रही हैं देश को कुछ कुर्सियां‚ हम सदा धोखा ही खाएं‚ क्या कहा? ऐसे वैसे काम सारे तुम करो‚ ऐसी–तैसी हम कराएं‚ क्या कहा? आज मंहगाई चढ़ी सौ सीढ़ियां‚ चांद पर खिचड़ी पकाएं‚ क्या कहा? आप ताजा मौसमी का रस पियें‚ और हम कीमत चुकाएं‚ क्या कहा? …
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