छुट्टी के दिन बैठ जाता हूँ कभी–कभी मिनट–दस मिनट को में माँ के सिरहाने! चाहता हूँ कि कहूँ कुछ–कुछ मगर फिर बात ही नहीं सूझती। वो ही उत्साहित–सी करने लगती है तब बचपन की बातें बैक गियर में ही चलाती है माँ अपनी गप–गाड़ी ‘जब तू छोटा था’ से ही शुरू होती है उसकी बेताल पचीसी! पुश्तैनी गहनों और पीतल …
Read More »भिन्न – अनामिका
मुझे भिन्न कहते हैं किसी पाँचवीं कक्षा के क्रुद्ध बालक की गणित पुस्तिका में मिलूंगी – एक पाँव पर खड़ी – डगमग। मैं पूर्ण इकाई नहीं – मेरा अधोभाग मेरे माथे से सब भारी पड़ता है लोग मुझे मानते हैं ठीक ठाक अंग्रेजी में ‘प्रॉपर फ्रैक्शन’। अगर कहीं गलती से मेरा माथा मेरे अधोभाग से भारी पड़ जाता है लोगों के …
Read More »बेजगह – अनामिका
अपनी जगह से गिर कर कहीं के नहीं रहते केश, औरतें और नाखून अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे हमारे संस्कृत टीचर और डर के मारे जम जाती थीं हम लड़कियाँ अपनी जगह पर। जगह? जगह क्या होती है? यह, वैसे, जान लिया था हमने अपनी पहली कक्षा में ही याद था हमें एक–एक अक्षर आरंभिक पाठों का “राम …
Read More »बाज़ लोग – अनामिका
बाज़ लोग जिनका कोई नहीं होता‚ और जो कोई नहीं होते‚ कहीं के नहीं होते– झुण्ड बना कर बैठ जाते हैं कभी–कभी बुझते अलावों के चारो तरफ । फिर अपनी बेडौल‚ खुरदुरी‚ अश्वस्त हथेलियां पसार कर वे सिर्फ आग नहीं तापते‚ आग को देते हैं आशीष कि आग जिये‚ जहां भी बची है‚ वह जीती रहे और खूब जिये! बाज़ …
Read More »परमगुरु – अनामिका
मैं नहीं जानती कि सम्य मेरी आँखों का था या मेरे भौचक्के चेहरे का, लेकिन सरकारी स्कूल की उस तीसरी पाँत की मेरी कुर्सी पर तेज प्रकाल से खुदा था– ‘उल्लू’ मरी हुई लाज से कभी हाथ उस पर रखती, कभी कॉपी लेकिन पट्ठा ऐसा था– छुपने का नाम ही नहीं लेता था ! धीरे–धीरे हुआ ऐसा– खुद गया मेरा वह …
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