रेडियो पर काम करते मोहनलाल काले साप्ताहिक संपादक उनके थे साले काले के लेख छपते साले के गीत गबते दोनों की तिजोरियों में अलीगढ़ के ताले भाषण देने खड़े हुए मटरूमल लाला दिमाग़ पर न जाने क्यों पड़ गया था ताला घर से याद करके स्पीच ख़ूब रटके लेकिन आके मंच पर जपने लगे माला साले की शादी में गए …
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डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी हास्य के विख्यात कवि थे। बरसाने लाल चतुर्वेदी ने हास्य रस के छह भेदों को ‘आत्मस्थ’ और ‘परस्थ’ में विभाजित कर उसे बारह प्रकार का माना है।
डॉ. बरसाने लाल को देखते ही मोटी बुद्धि वाले भी सही-सही अन्दाज लगा लेते कि वे मथुरा के चौबे होंगे। अच्छा खासा कद, रंग के भूरे भक्क, मानो सफेद लक्स की चिकनी-चुपडी बट्टी हो। हँसमुख चेहरे पर चश्मा लगाए, चमकती-दमकती चप्पलों में गजराज से झूमते-झूमते आते, तो दूर से ही लोग अंदाज लगा लेते हैं कि डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी आ रहे हैं। घर के भीतर हाथरसी लाल रंग का अंगोछा कमर में बांधे और शरीर पर बनियान में दिखाई पड जाते तो जाति पूछने की जरूरत ही नहीं होती। सच मानो वे सौ टंच चौबे ही लगते थे।
डॉ. साहब घर पर हों या बाहर आँखों पर हमेशा चश्मा चढाए रहते। गोरे-गोरे, गोल-गोल चेहरे पर चश्मा फब्ता भी खूब था। पान से भरा हुआ मुख, सफाचट्ट मूंछ, शाल ओढे दिखाई पड जाते तो नवोढा नायिका से लगते। उनसे बात करने का मौका हाथ लग जाता तो उनका चतुर्वेदीपन का लहजा साफ सुनाई पडता। मिठलौनी ठेठ ब्रज भाषा में जब अपनेपन की चासनी और चढा देते तो सोने में सुहागा हो जाता। उनकी रसभरी बातों को सुनकर पराए भी अपने हो जाते। उनकी अपनत्त्व भरी और गंभीरता से सनी बातों को सुनकर कोई यह नहीं कह सकता था कि वे हास्य के कवि हो सकते हैं।
ऐसे विनोदी स्वभाव के चतुर्वेदी जी दिल्ली में घुस गए पद्मश्री पा गए। मथुरा से दिल्ली तक उनकी तूती बोलती रही। एक से एक ऊंचे सम्मान पाए। पुरस्कार पाए। जमीन से जुडकर चले। वे आपा धापी, खींचा तानी और मनमानी के माहौल में तनावों से घिरे लोगों को, कुम्हलाए हुए चेहरों को, हँसी बांटते हुए एक दिन चुपचाप हमसे हमेशा के लिए विदा हो गए। आज भी उनकी हास्य और व्यंग्य की रचनाएं उन्हें हमारे सामने साकार कर जाती हैं।