अब क्या होगा इसे सोच कर, जी भारी करने में क्या है, जब वे चले गए हैं ओ मन, तब आँखें भरने में क्या है। जो होना था हुआ, अन्यथा करना सहज नहीं हो सकता, पहली बातें नहीं रहीं, तब रो रो कर मरने में क्या है? सूरज चला गया यदि बादल लाल लाल होते हैं तो क्या, लाई रात …
Read More »सतपुड़ा के घने जंगल – भवानी प्रसाद मिश्र
सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मींचे, घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल, पलाश चुप है; बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते, …
Read More »सन्नाटा – भवानी प्रसाद मिश्र
तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको, तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे, मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको। कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं, निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं, मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ, मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं। कभी कभी कुछ …
Read More »साधारण का आनंद – भवानी प्रसाद मिश्र
सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तब कहना चाहिए सम्पन्न व्यक्ति व्यक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का …
Read More »जाहिल मेरे बाने – भवानी प्रसाद मिश्र
मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पाँवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर आप …
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