…क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी …क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही …
Read More »ठंडा लोहा – धर्मवीर भारती
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा! मेरी स्वप्न भरी पलकों पर मेरे गीत भरे होठों पर मेरी दर्द भरी आत्मा पर स्वप्न नहीं अब गीत नहीं अब दर्द नहीं अब एक पर्त ठंडे लोहे की मैं जम कर लोहा बन जाऊँ– हार मान लूँ– यही शर्त ठंडे लोहे की। ओ मेरी आत्मा की …
Read More »तुम्हारे पाँव मेरी गोद में – धर्मवीर भारती
ये शरद के चाँद से उजले धुले–से पांव, मेरी गोद में। ये लहर पर नाचते ताजे कमल की छांव, मेरी गोद में। दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दांव, मेरी गोद में। रसमसाती धुप का ढलता पहर, ये हवाएं शाम की झुक झूम कर बिखर गयीं रौशनी के फूल हारसिंगार से प्यार घायल सांप सा लेता लहर, अर्चना की …
Read More »सम्पाती – धर्मवीर भारती
(जटायु का बड़ा भाई गिद्ध जो प्रथम बार सूर्य तक पहुचने के लिए उड़ा पंख झुलस जाने पर समुद्र-तट पर गिर पड़ा! सीता की खोज में जाने वाले वानर उसकी गुफा में भटक कर उसके आहार बने) …यह भी अदा थी मेरे बड़प्पन की कि जब भी गिरुं तो समुद्र के पार! मेरे पतन तट पर गहरी गुफा हो एक- …
Read More »मुझ पर पाप कैसे हो – धर्मवीर भारती
अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो? महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो? तुम्हारा मन अगर सींचूँ गुलाबी तन अगर सीचूँ तरल मलयज झकोरों से! तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से कली-सा तन, किरन-सा …
Read More »क्या इनका कोई अर्थ नही – धर्मवीर भारती
ये शामें, ये सब की सब शामें… जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी का भटका विकल हिया जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में ये शामें क्या इनका कोई अर्थ नही? वे लम्हें, वे सारे सूनेपन के लम्हे जब मैंने अपनी परछाई से बातें की दुख से वे सारी वीणाएं फैंकी जिनमें अब कोई भी स्वर …
Read More »साबुत आईने – धर्मवीर भारती
इस डगर पर मोड़ सारे तोड़, ले चूका कितने अपरिचित मोड़। पर मुझे लगता रहा हर बार, कर रहा हूँ आइनों को पार। दर्पणों में चल रहा हूँ मै, चौखटों को छल रहा हूँ मै। सामने लेकिन मिली हर बार, फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार। फिर वही झूठे झरोके द्वार, वही मंगल चिन्ह वंदनवार। किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग …
Read More »बोआई का गीत – धर्मवीर भारती
गोरी-गोरी सौंधी धरती-कारे-कारे बीज बदरा पानी दे! क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत बोने वालो! नई फसल में बोओगे क्या चीज ? बदरा पानी दे! मैं बोऊंगा बीर बहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग नये सितारे, नयी पीढियाँ, नये धान का रंग बदरा पानी दे! हम बोएंगे हरी चुनरियाँ, कजरी, मेहँदी राखी के कुछ सूत और सावन की पहली तीज! बदरा पानी दे! ∼ धर्मवीर …
Read More »उदास तुम – धर्मवीर भारती
तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास! ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास मदभरी चांदनी जगती हो! मुँह पर ढँक लेती हो आँचल ज्यों डूब रहे रवि पर बादल, या दिन-भर उड़कर थकी किरन, सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन! दो भूले-भटके सांध्य–विहग, पुतली में कर लेते निवास! तुम …
Read More »प्रथम प्रणय – धर्मवीर भारती
पहला दृष्टिकोणः यों कथा–कहानी–उपन्यास में कुछ भी हो इस अधकचरे मन के पहले आकर्षण को कोई भी याद नहीं रखता चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो! कड़वा नैराश्य‚ विकलता‚ घुटती बेचैनी धीरे–धीरे दब जाती है‚ परिवार‚ गृहस्थी‚ रोजी–धंधा‚ राजनीति अखबार सुबह‚ संध्या को पत्नी का आँचल मन पर छाया कर लेते हैं जीवन की यह विराट चक्की हर–एक नोक को …
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