मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत ! क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय ! अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी बड़े-बड़े महारथी अकेली निहत्थी आवाज़ को अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें तब मैं रथ का टूटा हुआ पहिया उसके हाथों …
Read More »फागुन के दिन की एक अनुभूति – धर्मवीर भारती
फागुन के सूखे दिन कस्बे के स्टेशन की धूल भरी राह बड़ी सूनी सी ट्रेन गुजर जाने के बाद पके खेतों पर ख़ामोशी पहले से और हुई दूनी सी आंधी के पत्तों से अनगिन तोते जैसे टूट गिरे लाइन पर, मेड़ों पर, पुलिया आस पास सब कुछ निस्तब्ध शांत मूर्छित सा अकस्मात्… चौकन्नी लोखरिया उछली और तेज़ी से तार फांद …
Read More »नवम्बर की दोपहर – धर्मवीर भारती
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले–सी यह दोपहर नवम्बर की। आयीं गयीं ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी जो कंवारेपन के कच्चे छल्ले–सी इस मन की उंगली पर कस जाये और फिर कसी ही रहे नित प्रति बसी ही रहे आँखों, बातों में, गीतों में, आलिंगन में, घायल फूलों की माला–सी …
Read More »मुनादी: धर्मवीर भारती
ख़लक खुदा का, मुलुक बाश्शा का हुकुम शहर कोतवाल का… हर ख़ासो–आम को आगह किया जाता है कि ख़बरदार रहें और अपने अपने किवाड़ों को अंदर से कुंडी चढ़ा कर बंद कर लें गिरा लें खिड़कियों के परदे और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमज़ोर आवाज में सड़कों पर …
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