फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने। साथी, साँझ लगी अब होने! खेल रही थी धूलि कणों में, लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में, वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने। साथी, साँझ लगी अब होने! मिट्टी से था जिन्हें बनाया, फूलों से था जिन्हें सजाया, खेल-घरौंदे …
Read More »साथी अंत दिवस का आया – हरिवंश राय बच्चन
तरु पर लौट रहें हैं नभचर, लौट रहीं नौकाएँ तट पर, पश्चिम कि गोदी में रवी कि, श्रांत किरण ने आश्रय पाया साथी अंत दिवस का आया रवि रजनी का आलिंगन है संध्या स्नेह मिलन का क्षण है कान्त प्रतीक्षा में गृहणी ने, देखो धर धर दीप जलाया साथी अंत दिवस का आया जग के वृस्तित अंधकार में जीवन के …
Read More »रात रात भर श्वान भूकते – हरिवंश राय बच्चन
पार नदी के जब ध्वनि जाती लौट उधर से प्रतिध्वनि आती समझ खड़े समबल प्रतिद्वंद्वी, दे दे अपने प्राण भूकते रात रात भर श्वान भूकते इस रव से निशि कितनी विह्वल बतला सकता हूं मैं केवल इसी तरह मेरे मन में भी असंतुष्ट अरमान भूकते रात रात भर श्वान भूकते जब दिन होता ये चुप होते कहीं अंधेरे में छिप …
Read More »पूर्व चलने के बटोही – हरिवंश राय बच्चन
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी, हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी, अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या, पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी, यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का …
Read More »प्रबल झंझावात साथी – हरिवंश राय बच्चन
देह पर अधिकार हारे, विवशता से पर पसारे, करुण रव-रत पक्षियों की आ रही है पाँत, साथी! प्रबल झंझावात, साथी! शब्द ‘हरहर’, शब्द ‘मरमर’– तरु गिरे जड़ से उखड़कर, उड़ गए छत और छप्पर, मच गया उत्पात, साथी! प्रबल झंझावात, साथी! हँस रहा संसार खग पर, कह रहा जो आह भर भर– ‘लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तॄण पात।’ …
Read More »कोई पार नदी के गाता – हरिवंश राय बच्चन
भंग निशा की नीरवता कर इस देहाती गाने का स्वर ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता कोई पार नदी के गाता होंगे भाई-बंधु निकट ही कभी सोचते होंगे यह भी इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता कोई पार नदी के गाता आज न जाने क्यों होता मन सुन कर यह एकाकी गायन …
Read More »कौन यह तूफ़ान रोके – हरिवंश राय बच्चन
कौन यह तूफान रोके! हिल उठे जिनसे समुंदर‚ हिल उठे दिशि और अंबर हिल उठे जिससे धरा के! वन सघन कर शब्द हर–हर! उस बवंडर के झकोरे किस तरह इंसान रोके! कौन यह तूफान रोके! उठ गया‚ लो‚ पांव मेरा‚ छुट गया‚ लो‚ ठांव मेरा‚ अलविदा‚ ऐ साथ वालो और मेरा पंथ डेरा; तुम न चाहो‚ मैं न चाहूं‚ कौन …
Read More »जो बीत गई सो बात गई – हरिवंश राय बच्चन
जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुम थे उसपर नित्य …
Read More »इस पार – उस पार – हरिवंश राय बच्चन
इस पार, प्रिये, मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती …
Read More »यात्रा और यात्री – हरिवंश राय बच्चन
साँस चलती है तुझे चलना पड़ेगा ही मुसाफिर! चल रहा है तारकों का दल गगन में गीत गाता, चल रहा आकाश भी है शून्य में भ्रमता-भ्रमाता, पाँव के नीचे पड़ी अचला नहीं, यह चंचला है, एक कण भी, एक क्षण भी एक थल पर टिक न पाता, शक्तियाँ गति की तुझे सब ओर से घेरे हुए है; स्थान से अपने …
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