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हो चुका खेल – राजकुमार

हो चुका खेल थक गए पांव अब सोने दो। फिर नन्हीं नन्हीं बूंदें फिर नई फसल फिर वर्षा ऋतु फिर ग्रीष्म वही फिर नई शरद। सोते से जगाया क्यों मुझको क्यों स्वप्न दिखाए मुझको मुझे फिर से स्वप्न दिखाओ मुझे वो सी नींद सुलाओ। जो बन पाया सो रखा है जो जुट पाया सो रखा है जब जी चाहे तब …

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हे सांझ मइया – शलभ श्रीराम सिंह

शंख फूंका सांझ का तुमने जलाया आरती का दीप आंचल को उठा कर बहुत धीमे और धीमे माथ से अपने लगा कर सुगबुगाते होंठ से इतना कहा– हे सांझ मइया… और इतने में कहा मां ने– बड़का आ गया बहन बोली : आ गये भइया। और तुमने गहगहाई सांझ में फूले हुए मन को संभाले हाथ जोड़े, फिर कहा… हे… …

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हवाएँ ना जाने – परमानन्द श्रीवास्तव

हवाएँ ना जाने कहाँ ले जाएँ। यह हँसी का छोर उजला यह चमक नीली कहाँ ले जाए तुम्हारी आँख सपनीली चमकता आकाश–जल हो चाँद प्यारा हो फूल–जैसा तन, सुरभि सा मन तुम्हारा हो महकते वन हों नदी जैसी चमकती चाँदनी हो स्वप्न डूबे जंगलों में गन्ध–डूबी यामिनी हो एक अनजानी नियति से बँधी जो सारी दिशाएँ न जाने कहाँ ले …

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हरी मिर्च – सत्यनारायण शर्मा ‘कमल’

खाने की मेज़ पर आज एक लम्बी छरहरी हरी मिर्च अदा से कमर टेढ़ी किये चेहरे पर मासूमियत लिये देर से झाँक रही मानो कह रही सलोनी सुकुमार हूँ जायका दे जाऊंगी आजमा कर देखिये सदा याद आऊंगी प्यार से उठाई उँगलियों से सहलाई ओठों से लगाई ज़रा सी चुटकी खाई अरे वह तो मुंहजली निकली डंक मार कर सारा …

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तुम्हारी हंसी – कुसुम सिन्हा

कैसी है तुम्हारी हंसी? ऊंचाई से गिरती जलधारा सी? कल कल छल छल करती मैं चकित सी देखती रह गई सारी नीरवता सारा विषाद तुम्हारी हंसी की धारा में बह गए तुम्हारी हंसी है सावन की फुहार भीगे मन प्राण नीरस मरुथल से मन पर जैसे बहार की हरियाली तुम्हारी हंसी है मावस के बाद की दूधिया चांदनी या फिर …

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सुबह – श्री प्रसाद

सूरज की किरणें आती हैं, सारी कलियाँ खिल जाती हैं, अंधकार सब खो जाता है, सब जग सुंदर हो जाता है। चिड़ियाँ गाती हैं मिलजुल कर, बहते हैं उनके मीठे स्वर, ठंडी ढंडी हवा सुहानी, चलती है जैसे मस्तानी। ये प्रातः की सुख­बेला है, धरती का सुख अलबेला है, नई ताज़गी नई कहानी, नया जोश पाते हैं प्राणी। खो देते …

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सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं – कुमार शिव

सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं जुगनुओं को अंधेरे में पाला गया फ्यूज़ बल्बों के अदभुत समारोह में रोशनी को शहर से निकाला गया। बुर्ज पर तम के झंडे फहरने लगे सांझ बनकर भिखारिन भटकती रही होके लज्जित सरेआम बाज़ार में सिर झुकाए–झुकाए उजाला गया। नाम बदले खजूरों नें अपने यहां बन गए कल्प वृक्षों के समकक्ष वे फल …

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तन हुए शहर के – सोम ठाकुर

तन हुए शहर के पर‚ मन जंगल के हुए। शीश कटी देह लिये हम इस कोलाहल में घूमते रहे लेकर विष–घट छलके हुए। छोड़ दीं स्वयं हमने सूरज की उंगलियां आयातित अंधकार के पीछे दौड़कर। देकर अंतिम प्रणाम धरती की गोद को हम जिया किए केवल खाली आकाश पर। ठंडे सैलाब में बहीं बसंत–पीढ़ियां‚ पांव कहीं टिके नहीं इतने हलके …

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तेरे बिन – रमेश गौड़

जैसे सूखा ताल बच रहे या कुछ कंकड़ या कुछ काई, जैसे धूल भरे मेले में चलने लगे साथ तन्हाई, तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ कुछ ऐसा ही है, जैसे सिफ़रों की क़तार बाकी रह जाए बिना इकाई। जैसे ध्रुवतारा बेबस हो, स्याही सागर में घुल जाए जैसे बरसों बाद मिली चिठ्ठी भी बिना पढ़े घुल जाए तेरे …

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तुम कभी थे सूर्य – चंद्रसेन विराट

तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये‚ थे कभी मुखपृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये। यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का‚ थे कभी दुल्हा स्वयं‚ बारातियों तक आ गये। वक्त का पहिया किसे कब‚ कहां कुचले क्या पता‚ थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये। देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं‚ …

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