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मेरा गाँव – किशोरी रमण टंडन

वो पनघट पे जमघट‚ वो सखियों की बातें वो सोने के दिन और चाँदी–सी रातें वो सावन की रिमझिम‚ वो बाग़ों के झूले वो गरमी का मौसम‚ हवा के बगूले वो गुड़िया के मेले‚ हज़ारों झमेले कभी हैं अकेले‚ कभी हैं दुकेले मुझे गाँव अपना बहुत याद आता। वो ढोलक की थापें‚ वो विरह वो कजरी वो बंसी की तानें‚ …

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विप्लव गान – बालकृष्ण शर्मा ‘नविन’

कवि‚ कुछ ऐसी तान सुनाओ— जिससे उथल–पुथल मच जाये! एक हिलोर इधर से आये— एक हिलोर उधर से आये; प्राणों के लाले पड़ जाएं त्राहि–त्राहि रव नभ में छाये‚ नाश और सत्यानाशों का धुआंधार जग में छा जाये‚ बरसे आग जलद् जल जायें‚ भस्मसात् भूधर हो जायें‚ पाप–पुण्य सदसद्भावों की धूल उड़ उठे दायें–बायें‚ नभ का वक्षःस्थल फट जाये‚ तारे …

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उतना तुम पर विश्वास बढ़ा – रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

बाहर के आंधी पानी से मन का तूफान कहीं बढ़कर‚ बाहर के सब आघातों से‚ मन का अवसान कहीं बढ़कर‚ फिर भी मेरे मरते मन ने तुम तक उड़ने की गति चाही‚ तुमने अपनी लौ से मेरे सपनों की चंचलता दाही‚ इस अनदेखी लौ ने मेरी बुझती पूजा में रूप गढ़ा‚ जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास …

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याद आती रही – प्रभा ठाकुर

आंख रह–रह मेरी डबडबाती रही‚ हम भुलाते रहे याद आती रही! प्राण सुलगे‚ तो जैसे धुआं छा गया। नैन भीगे‚ ज्यों प्यासा कुआं पा गया। रोते–रोते कोई बात याद आ गई‚ अश्रु बहते रहे‚ मुसकुराती रही! सांझ की डाल पर सुगबुगाती हवा‚ फिर मुझे दृष्टि भरकर किसी ने छुआ‚ घूम कर देखती हूं‚ तो कोई नहीं‚ मेरी परछाई मुझको चिढ़ाती …

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कहने को घर अब भी है – वीरेंद्र मिश्र

कहने को घर अब भी है, पर उस से छूट गई कुछ चीजें। आते–जाते हवा कि जैसे अटक गई है बालकनी में सूंघ गया है सांप फर्श को दर्द बढ़ा छत की धमनी में हर जाने–आने वाले पर हंसती रहती हैं दहलीजें। कब आया कैसे आया पर यह बदलाव साफ़ है अब तो मौसम इतना हुआ बेरहम कुछ भी नहीं …

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कमरे में धूप – कुंवर नारायण

हवा और दरवाजों में बहस होती रही दीवारें सुनती रहीं। धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी किरणों के ऊन का स्वैटर बुनती रही। सहसा किसी बात पर बिगड़कर हवा ने दरवाजे को तड़ से एक थप्पड़ जड़ दिया। खिड़कियाँ गरज उठीं‚ अखबार उठ कर खड़ा हो गया किताबें मुँह बाए देखती रहीं पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी …

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क्या वह नहीं होगा – कुंवर नारायण

क्या फिर वही होगा जिसका हमें डर है? क्या वह नहीं होगा जिसकी हमें आशा थी? क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे बाजारों में अपनी मूर्खताओं के गुलाम? क्या वे खरीद ले जाएंगे हमारे बच्चों को दूर देशों में अपना भविष्य बनवाने के लिये? क्या वे फिर हमसे उसी तरह लूट ले जाएंगे हमारा सोना हमें दिखलाकर कांच के चमकते …

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नीम के फूल – कुंवर नारायण

एक कड़वी–मीठी औषधीय गंध से भर उठता था घर जब आँगन के नीम में फूल आते। साबुन के बुलबुलों–से हवा में उड़ते हुए सफ़ेद छोटे–छोटे फूल दो–एक माँ के बालों में उलझे रह जाते जब की तुलसी घर पर जल चढ़ाकर आँगन से लौटती। अजीब सी बात है मैंने उन फूलों को जब भी सोचा बहुवचन में सोचा उन्हें कुम्हलाते …

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काँधे धरी यह पालकी – कुंवर नारायण

काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस गाँव से उस गाँव तक नंगे बदता फैंटा कसे बारात किसकी ढो रहे किसकी कहारी में फंसे? यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारो साल की काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस पाँव से उस पाँव पर ये पाँव बेवाई फटे काँधे धरा किसका महल? हम नीव पर किसकी …

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बच्चे शरारती क्यों-Learn How to handle naughty kids

बच्चे शरारती क्यों-Learn How to handle naughty kids

आज के अधिंकांश मां-बाप को शिकायत रहती है की उनके बच्चे बहुत उच्छृंखल हो गए हैं। उन्हें सम्मान नहीं देते हैं। दूसरों के सामने उनकी बेइज़्ज़ती कर देते हैं। कई बार तो ऐसी हरकतें करते हैं जिनके लिए मां-बाप को शर्मिंदा होना पड़ता है। वास्तव में यह एक चिंता का विषय है। क्या कभी हमने यह सोचा है की बच्चे …

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