एक सीढ़ी और चढ़ आया समय इस साल जाने छत कहाँ है। प्राण तो हैं प्राण जिनको देह–धनु से छूटना है, जिंदगी – उपवास जिसको शाम के क्षण टूटना है, हम समय के हाथ से छूटे हुए रूमाल, जाने छत कहाँ है। यह सुबह, यह शाम बुझते दीपकों की व्यस्त आदत और वे दिन–रात कोने से फटे जख्मी हुए ख़त …
Read More »चिट्ठी है किसी दुखी मन की: कुंवर बेचैन
बर्तन की यह उठका पटकी यह बात बात पर झल्लाना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। यह थकी देह पर कर्मभार इसको खांसी उसको बुखार जितना वेतन उतना उधार नन्हें मुन्नों को गुस्से में हर बार मार कर पछताना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। इतने धंधे यह क्षीणकाय ढोती ही रहती विवश हाय खुद ही उलझन खुद ही उपाय …
Read More »तुम – कुंवर बेचैन
शोर की इस भीड़ में ख़ामोश तन्हाई–सी तुम ज़िंदगी है धूप तो मदमस्त पुरवाई–सी तुम। आज मैं बारिश में जब भीगा तो तुम ज़ाहिर हुईं जाने कब से रह रहीं थीं मुझ में अंगड़ाई–सी तुम। चाहे महफिल में रहूं चाहे अकेला मैं रहूं गूंजती रहती हो मुझमें शोख़ शहनाई–सी तुम। लाओ वो तस्वीर जिसमें प्यार से बैठे हैं हम मैं …
Read More »अंतर – कुंवर बेचैन
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है। तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे अब जूतों में रह कर भी जल जाते हैं तब आया करती थी महक पसीने से आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से अब अनाम जंजीरों ने आ …
Read More »तुम्हारे हाथ से टंक कर – कुंवर बेचैन
तुम्हारे हाथ से टंक कर बने हीरे, बने मोती बटन मेरी कमीज़ों के। नयन का जागरण देतीं, नहाई देह की छुअनें, कभी भीगी हुई अलकें कभी ये चुम्बनों के फूल केसर-गंध सी पलकें, सवेरे ही सपन झूले बने ये सावनी लोचन कई त्यौहार तीजों के। बनी झंकार वीणा की तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में यह चाय की प्याली, थकावट की …
Read More »टल नही सकता – कुंवर बेचैन
मैं चलते – चलते इतना थक्क गया हूँ, चल नही सकता मगर मैं सूर्य हूँ, संध्या से पहले ढल नही सकता कोई जब रौशनी देगा, तभी हो पाउँगा रौशन मैं मिटटी का दिया हूँ, खुद तो मैं अब जल नही सकता जमाने भर को खुशियों देने वाला रो पड़ा आखिर वो कहता था मेरे दिल में कोई गम पल नही …
Read More »मीलों तक – कुंवर बेचैन
जिंदगी यूँ भी जली‚ यूँ भी जली मीलों तक चाँदनी चार कदम‚ धूप चली मीलों तक। प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमे अक्सर खत्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक। घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी खुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक। माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़ कर बरसी …
Read More »उँगलियाँ थाम के खुद – कुंवर बेचैन
उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे। उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे। बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे। छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर …
Read More »करो हमको न शर्मिंदा – कुंवर बेचैन
करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा। कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा। तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा। सफाई थी सचाई थी …
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