हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, …
Read More »किसान (भारत–भारती से) – मैथिली शरण गुप्त
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है। पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥ हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ। खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥ आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में। अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥ बरसा रहा है रवि अनल, भूतल …
Read More »नर हो, न निराश करो मन को – मैथिली शरण गुप्त
नर हो, न निराश करो मन को कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न …
Read More »साकेत: दशरथ का श्राद्ध, राम भारत संवाद – मैथिली शरण गुप्त
उस ओर पिता के भक्ति-भाव से भरके, अपने हाथों उपकरण इकट्ठे करके, प्रभु ने मुनियों के मध्य श्राद्ध-विधि साधी, ज्यों दण्ड चुकावे आप अवश अपराधी। पाकर पुत्रों में अटल प्रेम अघटित-सा, पितुरात्मा का परितोष हुआ प्रकटित-सा। हो गई होम की शिखा समुज्ज्वल दूनी, मन्दानिल में मिल खिलीं धूप की धूनी। अपना आमंत्रित अतिथि मानकर सबको, पहले परोस परितृप्ति-दान कर सबको, …
Read More »साकेत: अष्टम सर्ग – मैथिली शरण गुप्त
तरु–तले विराजे हुए, शिला के ऊपर, कुछ टिके, –घनुष की कोटि टेक कर भू पर, निज लक्ष–सिद्धि–सी, तनिक घूमकर तिरछे, जो सींच रहीं थी पर्णकुटी के बिरछे। उन सीता को, निज मूर्तिमती माया को, प्रणयप्राणा को और कान्तकाया को, यों देख रहे थे राम अटल अनुरागी, योगी के आगे अलख–जोति ज्यों जागी। अंचल–पट कटि में खोंस, कछोटा मारे, सीता माता …
Read More »साकेत: भरत का पादुका मांगना – मैथिली शरण गुप्त
“हे राघवेंद्र यह दास सदा अनुयायी‚ है बड़ी दण्ड से दया अन्त में न्यायी! हे देव भार के लिये नहीं रोता हूं‚ इन चरणों पर ही मैं अधीर होता हूं। प्रिय रहा तुम्हें यह दयाघृष्टलक्षण तो‚ कर लेंगी प्रभु–पादुका राज्य–रक्षण तो। तो जैसी आज्ञा आर्य सुखी हों बन में‚ जूझेगा दुख से दास उदास भवन में। बस‚ मिले पादुका मुझे‚ …
Read More »साकेत: राम का उत्तर – मैथिली शरण गुप्त
“हा मातः‚ मुझको करो न यों अपराधी‚ मैं सुन न सकूंगा बात और अब आधी। कहती हो तुम क्या अन्य तुल्य यह वाणी‚ क्या राम तुम्हारा पुत्र नहीं वह मानी? अब तो आज्ञा की अम्ब तुम्हारी बारी‚ प्रस्तुत हूं मैं भी धर्म धनुर्धृतिधारी। जननी ने मुझको जना‚ तुम्हीं ने पाला‚ अपने सांचे में आप यत्न कर डाला। सबके ऊपर आदेश …
Read More »सखि वे मुझसे कहकर जाते – मैथिली शरण गुप्त
सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में– क्षात्र–धर्म के नाते। सखि, वे …
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