जाती पगडंडी यह वन को खींच लिये जाती है मन को शुभ्र–धवल कुछ्र–कुछ मटमैली अपने में सिमटी, पर, फैली। चली गई है खोई–खोई पत्तों की मह–मह से धोई फूलों के रंगों में छिप कर, कहीं दूर जाकर यह सोई! उदित चंद्र बादल भी छाए। किरणों के रथ के रथ आए। पर, यह तो अपने में खोई कहीं दूर जाकर यह …
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