(एक) बहुत दिनों के बाद हम उसी नदी के तट से गुज़रे जहाँ नहाते हुए नदी के साथ हो लेते थे आज तट पर रेत ही रेत फैली है रेत पर बैठे–बैठे हम यूँ ही उसे कुरेदने लगे और देखा कि उसके भीतर से पानी छलछला आया है हमारी नज़रें आपस में मिलीं हम धीरे से मुस्कुरा उठे। (दो) छूटती …
Read More »हम तुम – रामदरश मिश्र
सुख के, दुख के पथ पर जीवन, छोड़ता हुआ पदचाप गया तुम साथ रहीं, हँसते–हँसते, इतना लंबा पथ नाप गया। तुम उतरीं चुपके से मेरे यौवन वन में बन के बहार गुनगुना उठे भौंरे, गुंजित हो कोयल का आलाप गया। स्वपनिल–स्वपनिल सा लगा गगन, रंगों में भीगी सी धरती जब बही तुम्हारी हँसी हवा–सी, पत्ता पत्ता काँप गया। जाने कितने …
Read More »अच्छा लगा – रामदरश मिश्र
आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा, सिर किये ऊँचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा। आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में, हो गया पूरा कड़ा बनवास तो अच्छा लगा। था पढ़ाया माँज कर बरतन घरों में रात दिन, हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा। लोग यों तो रोज ही आते रहे, जाते रहे, …
Read More »तुम्हारा साथ – रामदरश मिश्र
सुख के दुख के पथ पर जीवन छोड़ता हुआ पदचाप गया, तुम साथ रहीं, हँसते–हँसते इतना लम्बा पथ नाप गया। तुम उतरीं चुपके से मेरे यौवन वन में बन कर बहार, गुनगुना उठे भौंरे, गुंजित हो कोयल का आलाप गया। स्वप्निल स्वप्निल सा लगा गगन रंगों में भीगी–सी धरती, जब बही तुम्हारी हँसी हवा–सी पत्ता–पत्ता काँप गया। जाने कितने दिन …
Read More »सूर्य ढलता ही नहीं है – रामदरश मिश्र
चाहता हूं‚ कुछ लिखूँ‚ पर कुछ निकलता ही नहीं है दोस्त‚ भीतर आपके काई विकलता ही नहीं है। आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से बंद अपने में अकेले‚ दूर सारी हलचलों से हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरंतर चिड़चिड़ा कर कह रहे– “कम्बख्त जलता ही नहीं है।” बिजलियां घिरती‚ हवाए काँँपती‚ रोता अंधेरा लोग …
Read More »यह भी दिन बीत गया – रामदरश मिश्र
यह भी दिन बीत गया। पता नहीं जीवन का यह घड़ा एक बूंद भरा या कि एक बूंद रीत गया। उठा कहीं, गिरा कहीं, पाया कुछ खो दिया बंधा कहीं, खुला कहीं, हँसा कहीं रो दिया पता नहीं इन घड़ियों का हिया आँसू बन ढलका या कुल का बन दीप गया। इस तट लगने वाले कहीं और जा लगे किसके …
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