बिरसा मुंडा: भारत के स्वतंत्रता सेनानी की जीवनी

बिरसा मुंडा: भारत के स्वतंत्रता सेनानी की जीवनी

बिरसा मुंडा एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। उन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान 19वीं शताब्दी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी में हुए एक आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया, जिससे वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए।

बिरसा मुंडा: भारत के स्वतंत्रता सेनानी की जीवनी

Name: Birsa Munda (बिरसा मुंडा)
Born: 15 November 1875 – Ulihatu, Lohardaga district, Bengal Presidency
Died: 9 June 1900 (aged 24) – Ranchi Jail, Lohardaga district, Bengal Presidency
Nationality: Indian (Indian Tribal Freedom Fighter, Religious Leader and Folk Hero)
Movement: Indian independence movement
Parents: Sugana Munda (Father) :: Karmi Hatu (Mother)

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया। एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा ने बिहार और झारखंड के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम रोल निभाया।

अपने कार्यों और आंदोलन की वजह से बिहार और झारखंड में लोग बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजते हैं। बिरसा मुण्डा (Birsa Munda) ने मुण्डा विद्रोह पारम्परिक भू-व्यवस्था के जमींदारी व्यवस्था में बदलने के कारण किया। बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्‍वरवाद का उपदेश दिया। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया था।

बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का जन्म 1875 में लिहतु (Village: Ulihatu), जो रांची में पड़ता है, में हुआ था। साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल (Chaibasa at Gossner Evangelical Lutheran Mission school) में पढने आए। सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था।

बचपन में मुंडा (Birsa Munda) एक बेहद चंचल बालक थे। अंग्रेजों के बीच रहते हुए वह बड़े हुए। बचपन का अधिकतर समय उन्होंने अखाड़े में बिताया। हालांकि गरीबी की वजह से उन्हें रोजगार के लिए समय-समय पर अपना घर बदलना पड़ा। इसी भूख की दौड़ ने ही उन्हें स्कूल की राह दिखाई और उन्हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल (Chaibasa at Gossner Evangelical Lutheran Mission school) में पढ़ने का मौका मिला।

Birsa Munda was a young freedom fighter and a tribal leader to fight against Britishers
Birsa Munda was a young freedom fighter and a tribal leader to fight against Britishers

बिरसा मुंडा: शक्ति और साहस के परिचायक

चाईबासा में बिताए चार सालों ने बिरसा मुंडा (Birsa Munda) के जीवन पर गहरा असर डाला। 1895 तक बिरसा मुंडा एक सफल नेता के रुप में उभरने लगे जो लोगों में जागरुकता फैलाना चाहते थे। 1894 में आए अकाल के दौरान बिरसा मुंडा ने अपने मुंडा समुदाय और अन्य लोगों के लिए अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के लिए आंदोलन किया।

1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं (Mundas) में संगठित होने की चेतना जागी। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं। जनवरी 1900 में जहाँ बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी। अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए।

बिरसा ने अपनी अंतिम सांसें 9 जून, 1900 को रांची कारागर में ली. आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा भगवान की तरह पूजे जाते हैं।

भगवान बिरसा मुंडा के जीवन और संघर्षों पर आधारित फिल्म “उलगुलान-एक क्रांति”

बिरसा एक क्रांतिकारी थे, जिन्हें लोग पूजा करते हैं

आदिवासियों को एकत्र कर अंग्रेजी शासकों के दमनकारी एवं कठोर कानून के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाने वाले बिरसा मुंडा आज अपने अनुयायियों के बीच भगवान के तौर पर पूजे जाते हैं और देश भर में उन्हें आदिवासियों का प्रेरणाप्रद नेता माना जाता है। अपने समुदाय के लोगों के उत्पीड़न और उनकी जमीन पर ‘बाहरी’ लोगों का कब्जा सहित विभिन्न मुद्दों को लेकर उन्होंने लोगों को जागरूक किया और उनके आंदोलन ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया। उनका मकसद था कि आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हों और वे किसी दबाव में नहीं आएं। उनका विरोध अंग्रेजों के अलावा स्थानीय साहूकारों व महाजनों और जमींदारों के खिलाफ भी था।

उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें मिथक मान लिया गया था। रांची के पास उलिहातू में 15 नवंबर 1875 को पैदा हुए बिरसा मुंडा के अनुयायी उन्हें भगवान मानते हैं। उनका आंदोलन ऐसे दौर में शुरू हुआ था जब ब्रिटिश शासन का आतंक था। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और छोटी सी जिंदगी में ही इतना कुछ हासिल कर लिया जितना कई लंबी उम्र के बावजूद नहीं हासिल कर पाते।

उल्लेखनीय है कि उनका निधन सिर्फ 25 साल की उम्र में ही जेल में हो गया था। रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति रामदयाल मुंडा के अनुसार बिरसा का आंदोलन ”जन, जंगल और जमीन” को लेकर था। हालांकि उनके पहले भी दो आंदोलन कोल विद्रोह और संथाल विद्रोह हो चुके थे। उन्होंने स्थित किो समझा और बड़े पैमाने पर लोगों को संगठित किया। वह समझते थे कि शारीरिक रूप से अंग्रेजों से नहीं जीता जा सकता। ब्रिटिश साम्राज्य काफी शक्तिशाली था और उससे पार पाना आसान नहीं था।

राम दयाल मुंडा के अनुसार ब्रिटिश शासन को रेलवे के लिए संथाल क्षेत्र चाहिए था। इसके अलावा उन्हें राजस्व का भी लोभ था। जंगलों को साफ कर खेत बनाने पर जोर दिया जा रहा था। ऐसा करने के लिए प्रोत्साहन भी दिया जा रहा था। आदिवासियों के लिए पहाड़ी क्षेत्र में जो भी भूमि थी, फल फूल थे, वे उसी के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। राम दयाल मुंडा का मानना है कि मैदानी भारत एक तरह से समर्पण करता गया वहीं पहाड़ों में विरोध होता रहा। अंग्रेज आमने सामने की लड़ाई में भले ही शक्तिशाली थे मगर गुरिल्ला युद्ध के लिए वे तैयार नहीं थे और न ही उनकी सेना में ऐसे युद्ध के लिए कोई इकाई थी। बहरहाल वे किसी प्रकार आंदोलन को कुचलने में सफल रहे।

राम दयाल मुंडा के अनुसार बिरसा के देहांत के बाद काफी असर हुआ और रैयतों के हित में कानून बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। बाद में छोटानागपुर टेनेंसी कानून बना। झारखंड में काफी बड़ी संख्या में लोगों का बिरसा के साथ भावनात्मक लगाव है और उनके जन्मदिवस 15 नवंबर के मौके पर झारखंड राज्य का गठन हुआ। उनके अनुसार बिरसा ने जिन मुद्दों को लेकर संघर्ष किया, उसकी प्रासंगिकता अब भी बरकरार है।

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