Ganesh Shankar Vidyarthi Biography For Students

गणेश शंकर विद्यार्थी की जीवनी सरल हिंदी भाषा में

Born: 26 October 1890 Prayagraj, United Provinces, India
Died: 25 March 1931 Cawnpore (presently Kanpur), United Provinces, India
Occupation:
  • पत्रकार
  • समाज-सेवी
  • स्वतंत्रता सेनानी
  • राजनीतिज्ञ
Years Active: 1890 – 1931
Title: Editor – Pratap (1913–1931)

गणेश शंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के ‘स्वाधीनता संग्राम’ में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। अपनी बेबाकी और अलग अंदाज़से दूसरों के मुँह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।

गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन परिचय

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग (आधुनिक इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जय नारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त थे और उर्दू तथा फ़ारसी ख़ूब जानते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया।

व्यावसायिक शुरुआत

गणेशशंकर विद्यार्थी अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण एण्ट्रेंस तक ही पढ़ सके। किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था। शुरु में गणेश शंकर जी को सफलता के अनुसार ही एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन उनकी अंग्रेज़ अधिकारियों से नहीं पटी, जिस कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी।

गणेश शंकर विद्यार्थी का सम्पादन कार्य

इसके बाद कानपुर में गणेश जी ने करेंसी ऑफ़िस में नौकरी की, किन्तु यहाँ भी अंग्रेज़ अधिकारियों से इनकी नहीं पटी। अत: यह नौकरी छोड़कर अध्यापक हो गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी इनकी योग्यता पर रीझे हुए थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास ‘सरस्वती’ के लिए बुला लिया। विद्यार्थी जी की रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। यह एक ही वर्ष के बाद ‘अभ्युदय’ नामक पत्र में चले गये और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। इसके बाद सन 1907 से 1912 तक का इनका जीवन अत्यन्त संकटापन्न रहा। इन्होंने कुछ दिनों तक ‘प्रभा’ का भी सम्पादन किया था। 1913, अक्टूबर मास में ‘प्रताप’ (साप्ताहिक) के सम्पादक हुए। इन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज़ बुलन्द की।

लोकप्रियता

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों की प्रजा पर किये गये अत्याचारों का भी तीव्र विरोध किया। गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर के लोकप्रिय नेता तथा पत्रकार, शैलीकार एवं निबन्ध लेखक रहे थे। यह अपनी अतुल देश भक्ति और अनुपम आत्मोसर्ग के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया था। उसके बाद हिन्दी में पत्रकारिता के माध्यम से वे आये और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबन्ध त्याग और बलिदान सम्बन्धी विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे।

साहित्यिक अभिरुचि

पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्यिक अभिरुचियाँ भी निखरती जा रही थीं। आपकी रचनायें ‘सरस्वती’, ‘कर्मयोगी’, ‘स्वराज्य’, ‘हितवार्ता’ में छपती रहीं। आपने ‘सरस्वती’ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया था। हिन्दी में “शेखचिल्ली की कहानियाँ” आपकी देन है। “अभ्युदय” नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था, से भी विद्यार्थी जी जुड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर “प्रताप” अखबार की शुरूआत की। ‘प्रताप’ भारत की आज़ादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ। कानपुर का साहित्य समाज ‘प्रताप’ से जुड़ गया। क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित गणेश शंकर विद्यार्थी ‘जंग-ए-आज़ादी‘ के एक निष्ठावान सिपाही थे। महात्मा गाँधी उनके नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे। सरदार भगत सिंह को ‘प्रताप’ से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रताप में छापी, क्रान्तिकारियों के विचार व लेख प्रताप में निरन्तर छपते रहते।

भाषा-शैली

गणेशशंकर विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है। उसमें सरलता और प्रवाहमयता सर्वत्र मिलती है। विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता, ओज, गाम्भीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। उसमें आप वक्रता प्रधान शैली ग्रहण कर लेते हैं। जिससे निबन्ध कला का ह्रास भले होता दिखे, किन्तु पाठक के मन पर गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी, जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी। ग़रीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे।

पत्रकारिता के पुरोधा

विद्यार्थी जी का बचपन विदिशा और मुंगावली में बीता। किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रुचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रुचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे। महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में ‘हमारी आत्मोसर्गता‘ नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र ‘सरस्वती’ में उनका पहला लेख ‘आत्मोसर्ग‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के उद्भूत, विद्धान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये। श्री द्विवेदी के सान्निध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके।

‘प्रताप’ का प्रकाशन

अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए, अपने हक अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। विद्यार्थी जी ने अपने इस संकल्प को प्रताप में लिखे अग्रलेखों को अभिव्यक्त किया जिसके कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना किया और 22 अगस्त 1918 में प्रताप में प्रकाशित नानक सिंह की ‘सौदा ए वतन’ नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद करवा दिया। आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी। जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन 23 नवम्बर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रुप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्टेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामें में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921, 16 अक्टूबर 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। जेलयात्रा के दौरान उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सहित अन्य साहित्यकारों से भी हुई।

मृत्यु

गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च सन् 1931 ई. में हो गई। विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि, उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।

Honors:

  • Ganesh Shankar Vidyarthi Puraskar is given to renowned journalists by honorable President of India every year from 1989.
  • The Ganesh Shankar Vidyarthi Memorial (GSVM) Medical College Kanpur is named in his remembrance.
  • Ganesh Chowk, a square is named after him in the heart of the city of Gorakhpur.
  • Phool Bagh, earlier Queen’s Park in Kanpur is also called as Ganesh Vidyarthi Udyan.
  • The Ganesh Shankar Vidyarthi Inter College (GSVIC) GSV Inter College Kanpur is named in his remembrance.
  • The Ganesh Shanker Vidyarthi Inter College (GSV Inter College Hathgaon – Fatehpur) is named in his remembrance.
  • Ganesh Shanker Vidyarthi Smarak Inter College (GSVS Inter College Maharajganj, Uttar Pradesh) is named after his remembrance.
  • On 18 July 2017, the Uttar Pradesh government has renamed Kanpur Airport as Ganesh Shankar Vidyarthi Airport to pay respect to his contribution for the independence of India.

एक पत्रकार जिसे धारदार हथियारों से काट डाला गया… आज अपराधियों की मजहबी पहचान छिपाने पर करते सवाल

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ पत्रकारों की उस जमात से प्रश्न करते जो मुसलमान अपराधी का नाम लिखने से डरती है, जो किसी मजहबी नुमाइंदे के बलात्कारी होने पर खबरों के शीर्षक और फीचर इमेज में हिन्दू साधु के नाम और फोटो का प्रयोग करती है।

इतिहास लिखने वालों के अपने स्वार्थ होते हैं। वे अपने हित के हिसाब से ड्राफ्ट बनाते हैं और उस पर अतीत की कहानियों को छाप देते हैं। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाले बहुत हैं। ये कोई भी हो सकते हैं। लेखक, इतिहासकार, कहानीकार एवं कलाकार… कोई भी। ये कुंठा से ग्रसित होकर बदनाम करेंगे। तथ्यों की हत्या कर देंगे। सत्य को लेखनी की मशाल से जलाकर निष्पक्ष होने का ढोंग करेंगे। इनके लिए निष्पक्ष होना कठिन नहीं, क्योंकि ये निष्पक्षता की एक ही सीधी गली में चलते हैं जो मजहबी दुकानों के सामने से गुजरती है।

आज 25 मार्च है। भारत के एक ऐसे पत्रकार की पुण्यतिथि जिसके जीवन की व्याख्या अपने नैरेटिव के हिसाब से सबने की। हिन्दी पत्रकारिता हो या अंग्रेजी, स्वार्थ और तुष्टिकरण के अँधेरे में सभी अपने हितों की खोज करते रहे। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’, एक ऐसा नाम जो आज लिया तो जाता है किन्तु किस परिप्रेक्ष्य में, यह किसी को ज्ञात नहीं। वर्तमान समय के स्वघोषित निष्पक्ष पत्रकार आज कलम उठाएँगे और उसी बने-बनाए ड्राफ्ट पर अपनी कहानी छापेंगे।

धर्मनिरपेक्षता, निष्पक्षता और प्रश्न करने का अभिनय करने वाले पत्रकार गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का नाम लेकर उन्हें उलाहना देंगे जो उनकी तरह नहीं हैं। जिस गणेश शंकर ने समाज के हित के लिए कलम उठाई और तत्कालीन समय में उत्पीड़न एवं अन्याय के विरोध में खड़े रहे, उनका नाम लेकर आज वो पत्रकार भी पत्रकारिता पर ज्ञान बाँटते हैं जो पीड़ित के नाम, उसकी मजहबी पहचान और उसकी कुछ विशेष निशानियों के आधार पर अपराध की इन्टेन्सिटी को तौलते हैं।

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ वास्तविकता में निष्पक्ष थे। गाँधीवादी विचारों एवं क्रांतिकारी व्यक्तित्व का सम्मिश्रण थे वे। उन्होंने कभी नहीं देखा कि जिसकी आलोचना वे कर रहे हैं, वह किस धर्म का है, किस वर्ग का है। अमीर है अथवा गरीब। जमींदार है या पूँजीपति। उनके लिए तो बस अन्याय, अन्याय था और अन्याय करने वाला दोषी। यही होती है निष्पक्षता।

आज मात्र निष्पक्षता शब्द लिखने योग्य ही कौन है? वो जिनके लिए सेना के गरीब जवान के जीवन का कोई मूल्य नहीं और आतंकवादी, हेडमास्टर का बेटा, क्रिकेट फैन और गणित-भूगोल का शानदार विद्यार्थी हो जाता है। या फिर वो जो आपसी रंजिश में मरे मुसलमान की मौत को लेकर असहिष्णुता का नंगा नाच करते हैं और दिल्ली में मरने वाले अंकित शर्मा, रतनलाल, दिलबर नेगी को एक लाश मानकर दूर से ही निकल जाते हैं। डासना में ‘थप्पड़’ पर तो पत्रकारों की कलमें हिलने लगती हैं, स्याही समुद्री लहरों की भाँति आसमान छूने लगती है, लेकिन कमलेश तिवारी के गले को रेत दिए जाने पर इन्हीं पत्रकारों की आँखों के सामने इनकी कलमों की स्याही सूख जाती है। आजकल डिजिटल माध्यमों का जमाना है। स्याही की आवश्यकता भी नहीं, किन्तु कीबोर्ड पर उँगलियाँ भी नहीं चल पाती हैं।

कौन निष्पक्ष, कौन धर्मनिरपेक्ष

जो वन वे वाली धर्मनिरपेक्षता की आदर्श व्यवस्था की कल्पना करते हैं, मजहबी जिहाद पर आँखों को मूँदकर रखते हैं और जो झुंड बनाकर राष्ट्रवाद की पवित्र धारा को मलिन करने का प्रयास करते हैं, क्या ऐसे पत्रकार गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का नाम भी लेने के अधिकारी हैं?

लेकिन ये ‘पत्रकार’ ऐसा करते हैं। वे गणेश शंकर का नाम लेकर अपने पापों को धोते हैं। ये ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि इन्हें इतिहास का अपने अनुसार उपयोग करना सिखाया गया है। ये लंबे लेखों और सुंदर शब्दों से गणेश शंकर को श्रद्धांजलि देते हैं और आँसू बहाते हैं। प्रश्न करते हैं कि यदि आज गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ होते तो कहाँ होते? तब इन्हीं की जमात का एक और स्वघोषित निष्पक्ष पत्रकार उत्तर देता है, ‘जेल में’।

इन पत्रकारों ने तब प्रश्न नहीं किया जब घोटालों से भारत बर्बाद हो रहा था। ये पत्रकार तब भी प्रश्न नहीं करते, जब इस्लामी आतंकवादी भारत के शहरों में घुसकर सैकड़ों काफिरों को मार देता है। इन पत्रकारों ने तब भी प्रश्न नहीं उठाए, जब हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ा जा रहा था और मुंबई हमलों में पाकिस्तान की भूमिका को धुँधला किए जाने के षड्यंत्र किए जा रहे थे।

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ की कलम और उनका अखबार ‘प्रताप’ आज भी पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए आदर्श है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने सत्य पर अडिग रहते हुए अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध लेखन का कार्य किया। अपने ओजस्वी लेखों से उन्होंने अंग्रेजी सरकार की जड़ें हिलाकर रख दी। वो तब का समय था। आज का समय अलग है।

अपने जीवन को गरीबों और मजदूरों के लिए समर्पित करने वाले गणेश शंकर आज क्या उज्ज्वला और पीएम आवास जैसी योजनाओं पर सरकार के समर्थन में नहीं होते? आर्थिक असमानता के विरुद्ध लेख लिखने वाले गणेश शंकर क्या रोजगार देने वाली मुद्रा योजना की सराहना नहीं करते? गणेश के ही उत्तर प्रदेश में जहाँ कानून-व्यवस्था का कोई नाम नहीं था और जहाँ डकैती, लूट, बलात्कार, अपहरण और फिरौती आम घटनाओं की तरह ही थी, उस प्रदेश में कानून-व्यवस्था का राज स्थापित कर अंग्रेजों जैसी शोषक प्रवृत्ति के समाजवादियों को खदेड़ने वाले योगी आदित्यनाथ का साधुवाद क्या गणेश नहीं करते?

गणेश शंकर प्रश्न पूछते। जरूर पूछते। लेकिन बंगाल और केरल में हो रही राजनैतिक हत्याओं पर। महाराष्ट्र के सियासी नाटक और महामारी की रोकथाम की असफलता पर। धार्मिक केंद्रों के रखरखाव और प्रबंधन में हिंदुओं के साथ हो रहे छल और अन्याय पर। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ पत्रकारों की उस जमात से प्रश्न करते जो मुसलमान अपराधी का नाम लिखने से डरती है, जो किसी मजहबी नुमाइंदे के बलात्कारी होने पर खबरों के शीर्षक और फीचर इमेज में हिन्दू साधु के नाम और फोटो का प्रयोग करती है। गणेश शंकर हर उस पत्रकार से प्रश्न करते जो हिंदुओं को उनके धर्म के कारण दोयम दर्जे का मानता आया है। तब यही निष्पक्ष और क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ को भी ‘भक्त’ कह देते।

उपद्रवियों की एक भीड़ को समझाने की कोशिश कर रहे गणेश शंकर विद्यार्थी को आज ही के दिन, 25 मार्च 1931 को तेज धार वाले हथियारों से काट डाला गया था। यही वो दिन था जब कानपुर में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दिए जाने के विरोध में तत्कालीन काँग्रेस सदस्यों द्वारा जुलूस निकाला जा रहा था। यह जुलूस जब एक समुदाय विशेष के क्षेत्र से गुजरा तब अचानक ही दंगे भड़क उठे। जब गणेश को दंगों की जानकारी मिली तो वे अकेले ही उस मुस्लिम बहुल इलाके में दंगों को रोकने के लिए निकल पड़े किन्तु दंगों को रोकने के इस प्रयास का परिणाम हुआ उनकी हत्या। कानपुर के चौबे गोला चौराहे के पास चाकू घोंप कर गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ की हत्या कर दी गई। हत्या किस समुदाय के लोगों ने की इसका अंदाजा हत्या की क्रूरता से लगाया जा सकता है। गणेश शंकर एक सुधारवादी व्यक्ति थे, किन्तु बड़े धर्मपरायण और ईश्वरभक्त भी थे। जब तत्कालीन समाज में धर्मनिरपेक्षता के बीज पड़ रहे थे, तब गणेश अपनी धार्मिक पहचान को बनाए हुए थे।

समाज में शांति की इच्छा रखने वाला एक धर्मपरायण पत्रकार सही मायनों में क्रांतिकारी था। लिहाजा आप उन पत्रकारों को देखें और उनका नाम याद रखें जो गणेश शंकर का नाम लेकर धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करते हैं। उनके नाम का उपयोग अपने स्वार्थ और अपनी झूठी पहचान को साधने का कार्य के लिए करते हैं। हम आपको गणेश शंकर विद्यार्थी की जीवनी भी उपलब्ध करा सकते थे, लेकिन हमने वर्तमान भारत के कुछ दोगले और छद्म पत्रकारों के उस झुंड से आपका परिचय कराया जो इतिहास के ऐसे ही कुछ पात्रों को अपने नैरेटिव के हिसाब से याद करता है और उनके नाम पर आपको भ्रमित करता है।

याद रखिए सिर्फ प्रश्न पूछना ही पत्रकारिता नहीं है, अपितु सही प्रश्न पूछना और जिम्मेदार से प्रश्न पूछना ही वास्तविक पत्रकारिता है।

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