Shaheed Udham Singh

Shaheed Udham Singh Biography For Students

उधम सिंह: जलियाँवाला बाग नरसंहार की आग में 21 साल तक जले, फिर एक दिन ऐसे उतारा डायर को मौत के घाट

“मैं 21 साल से प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था। डायर और जेटलैंड मेरे देश की आत्मा को कुचलना चाहते थे। इसका विरोध करना मेरा कर्तव्य था।”

13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला बाग नरसंहार को भला कौन भूल सकता है? 100 साल बाद भी कोई व्यक्ति शायद ही ऐसा हो जिसे ना मालूम हो कि उस दिन जनरल डायर के इशारे पर 1000 से ज्यादा बेगुनाह लोग गोलियों से भून दिए गए। 2000 से अधिक घायल हुए। इस खूनी दिन जैसा ब्रिटिशों का बर्बर रूप शायद ही कभी दिखा हो।

उस दिन जो कुछ भी हुआ उसने सबको झकझोर दिया। घरों से आती सिसकियों की आवाजें और परिजनों के सूखे आँसुओं ने जैसे कइयों के मन में बदले की आग जला दी थी। लेकिन उधम सिंह एक ऐसे नौजवान थे। जिन्होंने इस घटना के बाद अपने जीवन का मकसद ही जनरल डायर की मौत को बना लिया था। उन्होंने अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए पूरे 21 वर्षों तक इंतजार किया

26 दिसंबर 1899 को जन्मे उधम सिंह मात्र 2 वर्ष की आयु में माँ को खो चुके थे और 8 वर्ष की आयु में पिता का भी देहांत हो गया था। माता-पिता के जाने के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ अनाथालय में जीवन गुजारा। लेकिन 1917 में जब भाई भी अलविदा कह गए तो वह बिलकुल अकेले रह हए।

1919 में उन्होंने खुद को आजादी की मुहिम से जोड़ा और सैंकड़ों बेगुनाहों की जान का बदला लेने के लिए खुद को तैयार किया। उस समय वह मात्र 20 साल के थे। लेकिन अपनी आँखो के आगे जलियाँवाला बाग की घटना देखकर वह क्षुब्ध रह गए थे। शायद यही कारण था कि उस दिन सभी लोगों के घटनास्थल से चले जाने के बाद वह वहाँ फिर गए और वहाँ की मिट्टी को माथे पर लगा कर यह संकल्प लिया कि इस नरसंहार को अंजाम देने वालों से वह बदला जरूर लेंगे।

अपने संकल्प को पूरा करते हुए उन्होंने कई युक्तियाँ बनाईं। उन्होंने केवल जनरल डायर को मौत के घाट उतारने के लिए अपना नाम बदल-बदल कर अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। 1923 में वह अफ्रीका से होते हुए ब्रिटेन पहुँचे। मगर, 1928 में भगत सिंह के कहने पर वह भारत लौट आए और लहौर में उन्हें सशस्त्र अधिनियम के उल्लंघन के आरोप में पकड़ लिया गया। जहाँ उन्हें 4 साल की सजा सुनाई गई।

इसके बाद 1934 में वह फिर लंदन पहुँचे। वहाँ उन्होंने 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहना शुरू किया और एक कार के साथ 6 गोलियों वाली एक रिवॉल्वर खरीदी।

अब उन्हें केवल सही मौके का इंतजार था। लंबे समय तक खुद को बदले की आग में जलाने वाले उधम सिंह ने 6 साल और इंतजार किया। फिर एक दिन वो समय आया जब उधम सिंह को अपना इंतजार खत्म होता दिखा। वो तारीख 13 मार्च 1940 की थी। जलियाँवाला नरसंहार के 21 साल बाद की तारीख।

रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी और वहाँ जलियाँवाला बाग को अंजाम देने वाले दो खलनायाक- माइकल ओ डायर और तत्कालीन सेक्रेट्री ऑफ स्टेट लॉर्ड जेटलैंड वक्ता के तौर पर आने वाले थे।

उधम सिंह जानते थे कि इससे अच्छा मौका दोबारा नहीं मिलेगा। वो उस दिन समय से उस बैठक में पहुँच गए और अपने साथ 6 गोलियों वाली रिवॉल्वर भी ले गए। उस बंदूक को ले जाने के लिए उन्होंने एक नायाब तरीका ढूँढा था। उन्होंने किताब के पन्नों को बीच में इस तरह से काटा था कि उसमें रिवाॉल्वर छिप गई। फिर उन्होंने बस डायर पर उसे चलाने का इंतजार किया। सभा में जाकर वह मंच से कुछ दूरी पर बैठ गए और सही समय की प्रतीक्षा करने लगे।

माइकल डायर मंच पर आए और भारत के ख़िलाफ़ जमकर जहर उगला। लेकिन जैसे ही उनका भाषण पूरा हुआ। उधम सिंह ने किताब से निकालकर बंदूक उसके सामने तानी और गोलियाँ चला दीं। डायर वहीं गिर गया और लॉर्ड जेटलैंड भी बुरी तरह घयाल हुआ।

मात्र दो गोलियों में दायर अपना दम तोड़ चुका था और हड़कंप में उधम सिंह के पास भागने का मौका भी था। हालाँकि उन्होंने ऐसा नहीं किया। नतीजतन वह गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में न्यायालय में उन्होंने अपने ऊपर लगे सभी आरोपों को स्वीकारा और कहा, “मैं 21 साल से प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था। डायर और जेटलैंड मेरे देश की आत्मा को कुचलना चाहते थे। इसका विरोध करना मेरा कर्तव्य था।”

उल्लेखनीय है कि बलिदानी उधम सिंह के उस दिन सभा से न भागने का एक कारण यह भी था कि वह चाहते थे कि दुनिया को जनरल डायर की काली करतूत पता चले और ये भी पता चले कि उधम सिंह ने उन्हें किस बात की सजा दी है।

गिरफ्तारी के बाद उन पर मुकदमा चला। 4 जून को उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटन विले जेल में फँदे पर लटका दिए गया। बताया जाता है कि कॉक्सटन हॉल में माइकल ओर डायर को मारने के बाद भी वह बेरिकस्टन और पेंटनविले जेल से लिखे पत्रों में भी उधम सिंह ने अपना नाम मोहम्मद सिंह आजाद ही लिखा। आज उनके बलिदान को 80 साल बीत गए हैं। लेकिन आज भी उनके प्रतिशोध की ज्वाला हर किसी के मन में देशभक्ति की मिसाल बनकर देखने को मिलती है।

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