Tulsidas Biography For Students And Children

Tulsidas Biography For Students And Children

Tulsidas was a great saint of India. He was a devotee of Lord Rama. He was born in 1540 at Banda in Uttar Pradesh. He had to face a lot of hardships from childhood itself. Tulsi’s parents died when he was just five. He had to beg and work in fields to fill his stomach.

Tulsidas Biography:

Name: Tulsidas (Rambola Dubey)
Born: 11 August, 1511 – Soron, Delhi Sultanate (present-day Uttar Pradesh), India
Death: 30 July, 1623 (aged 111)
Religion: Hinduism
Spouse: Ratnavali
Parents: Aatmaram Dubey (father) :: Hulsi Devi (mother)
Guru: Narharidas (Narharyanandacharya))
Literary works: Ramcharitmanas, Vinaya Patrika, Geetawali, Dohavali, Sahitya Ratna, Hanuman Chalisa, Vairagya Sandipani, Janaki Mangal, Parvati Mangal, and others
Honors: Goswami, sant, Abhinavavālmīki, Bhaktaśiromaṇi

The life of Tulsi became better after he met Guru Nar Hari Das. Following his Guru’s footsteps, he started worshiping Lord Rama. He later got married to a beautiful woman called Ratnavali. After marriage, Tulsi Das began to love his wife so much that he forget his love for God Rama. He did not even look after the household needs. One day, his wife got angry and said to him, “If you had paid even half of this attention to Rama, you would have found Him by now”.

This sentence brought Tulsi Das to his senses and changed his life forever. He went to Ayodhya and wrote ‘Ramcharitmanas’ the great epic of Rama’s life. He completed it in 1600. Tulsi Das also wrote Kavitavali, Vinaypatrika and Geetavali.

Tulsi Das devoted his entire life to the worship of Lord Rama. His songs of devotion are sung even today in every household. He died in 1623 at Kashi.

गोस्वामी तुलसीदास – पत्नी की डांट ने बनाया महान संत

भक्तिकाल के स्वर्णिम युग के दौरान अनेक संतों, भक्तों, कवियों ने अपनी भक्ति, ज्ञान की अमृतधारा द्वारा भारतीय काव्य और साहित्य को अति समृद्ध किया। ऐसे ही अग्रणी संत तथा राम भक्त गोस्वामी तुलसीदास हुए, जिन्होंने राम भक्ति धारा को अनवरत प्रवाहित करने में अपना अतुलनीय योगदान दिया।

तुलसीदास जी का जन्म 1511 ई. में सोरों ग्राम राजापुर उत्तर प्रदेश, वर्तमान में बांदा जिले के चित्रकूट में पिता आत्मा राम दुबे तथा माता हुलसी के घर हुआ।

किंवदंती है कि जन्म दौरान इनके सभी दांत तथा पांच वर्ष के बालक समान शरीर को देखकर सभी अचंभित रह गए।

इन्होंने मुख से ‘राम’ शब्द का उच्चारण किया जिस कारण इनका बचपन का नाम ‘रामबोला’ रखा गया। माता के गर्भ में वह 12 महीने रहे थे। इन तमाम लक्षणों के कारण इन्हें अपशुकन मानकर एक दासी के साथ ससुराल भेजा गया।

दासी की मौत के बाद यह अकेले पड़ गए। इनके बारे में कामदगिरी स्थान पर निवास करते स्वामी नरहरिदास को पता चला तो इन्हें अपने यहां ले आए तथा वहां पर इनका पालन-पोषण हुआ और साधु-संतों की संगति में रंग कर यह आगे चल कर अपने गुरु नरहरिदास के शिष्य के रूप में प्रकांड पंडित बन गए तथा अल्पायु में ही बेदों, पुराणों, उपनिषदों और महाकाव्यों का गहन अध्ययन कर इन्हें कंठस्थ कर लिया।

तुलसीदास का विवाह 1532 ई. में दीनबंधु पाठक की सुपुत्री रत्नावली से हुआ, जो बदरिया गांव के निवासी थे। इनके यहां एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम तारक था, जो अल्पायु में ही चल बसा। विवाह उपरांत तुलसीदास गृहस्थ जीवन और अपनी पली के प्रति अधिक आसक्त हो गए।

एक बार रत्नावली के मायके जाने पर वह प्रेम में इतने व्याकुल हो गए कि आंधी-तूफान और बारिश की रात में एक लाश को पकड़ कर नदी पार करते हुए उसके पास जा पहुंचे।

यह देख पत्नी ने उन्हें डांटते हुए यह ताना मारा कि हड्डी और मांस के इस शरीर से इतना प्रेम। अगर इतना ही प्रेम तुमने राम से किया होता तो यह जीवन सुधर जाता।

इससे इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया तथा इन्होंने राम चरणों में अपनी आसक्ति लगा ली।

श्री राम को सर्वस्व इष्ट मानकर इन्होंने राम भक्ति और महिमा का व्यापक प्रचार प्रसार किया तथा 12 प्रमाणिक रचनाओं द्वारा हिन्दी साहित्य को खूब समृद्ध किया।

श्री रामचरितमानस जैसी कालजयी महान रचना ने इन्हें अमर कर दिया जिसको सम्पूर्ण करने में इन्हें 2 वर्ष, 7 महीने, 26 दिन का लम्बा समय लगा।

इन्होंने ‘बरवै रामायण‘, ‘रामलला नहछू‘, ‘विनय पत्रिका‘ तथा ‘हनुमान चालीसा‘ जैसी विश्व प्रसिद्ध रचनाएं भी लिखीं।

कठिन पठनीय वाल्मीकिय रामायण को इन्होंने जन मानस और लोकाचार की सरल भाषा में लोक कल्याण की भावना के साथ लिखा जिसमें अन्य बोलचालकी भाषाओं का सुंदर सुमेल किया गया।

अपनी असाधारण प्रतिभातथा बेजोड़ भविति भावना के साथ गोस्वामी जीवनपर्यत दास्य भावना से श्री राम की अनन्य भक्त में तल्लीन रहे तथा कलयुग में राम भक्ति को ही एकमात्र विकल्प मानकर इन्होंने वर्णन किया:

कलयुग केवल नाम अधारा।
सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा॥

ऐसा माना जाता है कि इस कलिकाल में सियाराम तथा हनुमान के प्रत्यक्ष दर्शनों का लाभ केवल तुलसीदास जी को ही मिला, जब बह रामचरित मानस की रचना में तल्लीन थे।

श्री राम नाम को मंगल करने वाला तथा अमंगलों को हरने वाला जानकर गोस्वामी जी लिखते हैं:

मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी॥

राम कृपा से ही सर्वस्व कृपा होने को तुलसीदास जी ने यूं वर्णन किया:

जा पर कृपा राम की होई।
ता पर कृपा करहिं सब कोई॥

1623 ई. में बनारस के अस्सी घाट पर गोस्वामी जी ने राम-राम कहते हुए नश्वर देह का त्याग किया तथा राम धाम को प्राप्त हुए।

~ नीरज झांजी, जालंघर

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