Poems For Kids

Poetry for children: Our large assortment of poems for children include evergreen classics as well as new poems on a variety of themes. You will find original juvenile poetry about trees, animals, parties, school, friendship and many more subjects. We have short poems, long poems, funny poems, inspirational poems, poems about environment, poems you can recite

माँ से दूर – राहुल उपाध्याय

मैं अपनी माँ से दूर अमरीका में रहता हूँ बहुत खुश हूँ यहाँ, मैं उससे कहता हूँ। हर हफ्ते मैं उसका हाल पूछता हूँ और अपना हाल सुनाता हूँ। सुनो माँ कुछ दिन पहले हम ग्राँड केन्यन गए थे कुछ दिन बाद हम विक्टोरिया–वेन्कूवर जाएंगे दिसंबर में हम केन्कून गए थे और जुन में माउंट रेनियर जाने का विचार है। …

Read More »

लोकतंत्र – राजेंद्र तिवारी

योजना उजाले की फेल हो गई। मौसम की साज़िश का हो गया शिकार, लगता है सूरज को जेल हो गई। संसद से आंगन तक, रोज़ बजट घाटे का आसमान छूता है भाव, दाल–आटे का मंहगी तन ढकने की, हो गई लंगोटी भी ख़तरे में दिखती है, चटनी और रोटी भी। सपने, उम्मीदें, सब खुशियां, त्योहार, लील गई महंगाई ‘व्हेल’ हो …

Read More »

जीवन का दाँव – राजेंद्र त्रिपाठी

भाग दौड़ रातों दिन थमें नहीं पाँव। दुविधा में हार रहे जीवन का दाँव। हर यात्रा भटकन के नाम हो गई घर दफ्तर दुनियाँ में इस तरह बँटे सूरज कब निकला कब शाम हो गई जान नहीं पाए दिन किस तरह कटे। बेमतलब चिंताएँ बोझ रहीं यार रास्ते में होगी ही धूप कहीं छाँव। अपनी हर सुविधा के तर्क गढ़ …

Read More »

जैसे तुम सोच रहे साथी – विनोद श्रीवास्तव

जैसे तुम सोच रहे साथी - विनोद श्रीवास्तव

जैसे तुम सोच रहे वैसे आज़ाद नहीं हैं हम। पिंजरे जैसी इस दुनिया में पंछी जैसा ही रहना है भर-पेट मिले दाना-पानी लेकिन मन ही मन दहना है। जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आबाद नहीं है हम। आगे बढ़ने की कोशिश में रिश्ते-नाते सब छूट गए तन को जितना गढ़ना चाहा मन से उतना ही टूट गए। जैसे तुम …

Read More »

जहाँ मैं हूँ – बुद्धिसेन शर्मा

जहाँ मैं हूँ – बुद्धिसेन शर्मा

अजब दहशत में है डूबा हुआ मंजर, जहाँ मैं हूँ धमाके गूंजने लगते हैं, रह-रहकर, जहाँ मैं हूँ कोई चीखे तो जैसे और बढ़ जाता है सन्नाटा सभी के कान हैं हर आहट पर, जहाँ मैं हूँ खुली हैं खिडकियां फिर भी घुटन महसूस होती है गुजरती है मकानों से हवा बचकर, जहाँ मैं हूँ सियासत जब कभी अंगडाइयाँ लेती …

Read More »

लो दिन बीता – हरिवंश राय बच्चन

लो दिन बीता - हरिवंश राय बच्चन

सूरज ढलकर पश्चिम पहुँचा डूबा, संध्या आई, छाई सौ संध्या सी वह संध्या थी क्यों उठते–उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात हुई धीमे–धीमे तारे निकले धीरे–धीरे नभ में फैले सौ रजनी सी वह रजनी थी क्यों संध्या में यह सोचा था निशि में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात …

Read More »

फागुन की शाम – धर्मवीर भारती

फागुन की शाम - धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते, उस बँसवट से इक पीली–सी चिड़िया, उसका कुछ अच्छा–सा नाम है! मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन, ये फागुन की शाम है! घाट की सीढ़ी तोड़–फोड़ कर बन–तुलसी उग आयी झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी–अनकहनी आज खा …

Read More »

एक कण दे दो न मुझको – अंचल

एक कण दे दो न मुझको - अंचल

तुम गगन–भेदी शिखर हो मैं मरुस्थल का कगारा फूट पाई पर नहीं मुझमें अभी तक प्राण धारा जलवती होती दिशाएं पा तुम्हारा ही इशारा फूट कर रसदान देते सब तुम्हारा पा सहारा गूँजती जीवन–रसा का एक तृण दे दो न मुझको, एक कण दे दो न मुझको। जो नहीं तुमने दिया अब तक मुझे, मैंने सहा सब प्यास की तपती …

Read More »

दो दिन ठहर जाओ – रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’

दो दिन ठहर जाओ - रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’

अभी ही तो लदी ही आम की डाली, अभी ही तो बही है गंध मतवाली; अभी ही तो उठी है तान पंचम की, लगी अलि के अधर से फूल की प्याली; दिये कर लाल जिसने गाल कलियों के – तुम्हें उस हास की सौगंध है, दो दिन ठहर जाओ! हृदय में हो रही अनजान–सी धड़कन, रगों में बह रही रंगीन–सी …

Read More »

चल उठ नेता – अशोक अंजुम

चल उठ नेता - अशोक अंजुम

चल उठ नेता तू छेड़ तान! क्या राष्ट्रधर्म? क्या संविधान? तू नये ­नये हथकंडे ला! वश में अपने कुछ गुंडे ला फिर ऊँचे­ ऊँचे झंडे ला! हर एक हाथ में डंडे ला! फिर ले जनता की ओर तान! क्या राष्ट्रधर्म? क्या संविधान? इस शहर में खिलते चेहरे क्यों? आपस में रिश्ते गहरे क्यों? घर­ घर खुशहाली चेहरे क्यों? झूठों पर …

Read More »