धरती से सीखा है हमने सबका बोझ उठाना और गगन से सीखा हमने ऊपर उठते जाना सूरज की लाली से सीखा जग आलोकित करना चंदा की किरणों से सीखा सबकी पीड़ा हरना पर्वत से सीखा है हमने दृढ़ संकाल्प बनाना और नदी से सीखा हमने आगे बढ़ते जाना सागर की लहरों से सीखा सुख दुख को सह जाना तूफानों ने …
Read More »नई सहर आएगी – निदा फ़ाज़ली
रात के बाद नए दिन की सहर आएगी दिन नहीं बदलेगा तारीख़ बदल जाएगी हँसते–हँसते कभी थक जाओ तो छुप कर रो लो यह हँसी भीग के कुछ और चमक जाएगी जगमगाती हुई सड़कों पर अकेले न फिरो शाम आएगी किसी मोड़ पे डस जाएगी और कुछ देर यूँ ही जंग, सियासत, मज़हब और थक जाओ अभी नींद कहाँ आएगी …
Read More »गाल पे काटा – ज़िया उल हक़ कासिमी
माशूक जो ठिगना है तो आशिक भी है नाटा इसका कोई नुकसान, न उसको कोई घाटा। तेरी तो नवाज़िश है कि तू आ गया लेकिन ऐ दोस्त मेरे घर में न चावल है न आटा। तुमने तो कहा था कि चलो डूब मरें हम अब साहिले–दरिया पे खड़े करते हो ‘टाटा’। आशिक डगर में प्यार की चौबंद रहेंगे सीखा है …
Read More »बैरागी भैरव – बुद्धिनाथ मिश्र
बहकावे में मत रह हारिल एक बात तू गाँठ बाँध ले केवल तू ईश्वर है बाकी सब नश्वर है ये तेरी इन्द्रियाँ, दृश्य सुख–दुख के परदे उठते–गिरते सदा रहेंगे तेरे आगे मुक्त साँड बनने से पहले लाल लोह–मुद्रा से वृष जाएँगे दागे भटकावे में मत रह हारिल पकड़े रह अपनी लकड़ी को यही बताएगी अब तेरी दिशा किधर है। ये …
Read More »आप मिले तो – दिनेश प्रभात
आप मिले तो लगा जिंदगी अपनी आज निहाल हुई मन जैसे कश्मीर हुआ है आँखें नैनीताल हुईं। तन्हाई का बोझा ढो–ढो कमर जवानी की टूटी चेहरे का लावण्य बचाये नहीं मिली ऐसी बूटी आप मिले तो उम्र हमारी जैसे सोलह साल हुई। तारों ने सन्यास लिया था चाँद बना था वैरागी रात सध्वी बनकर काटी दिन काटा बनकर त्यागी आप …
Read More »बच्चे की नींद – दिवांशु गोयल ‘स्पर्श’
गहराती रात में, टिमटिमाती दो आँखें, एक में सपने, एक भूख, अंतर्द्वंद दोनों का, समय के विरुद्ध, एक आकाश में उड़ाता है, एक जमीं पे लाता है, एक पल के लिए, सपने जीत चुके थे मगर, भूख ने अपना जाल बिखेरा, ला पटका सपनों को, यथार्थ की झोली में, सब कुछ बिकाऊ है यहाँ, सपने, हकीकत और भूख, और बिकाऊ …
Read More »मुझे अभिमान हो – दिवांशु गोयल ‘स्पर्श’
आज मुझे फिर इस बात का गुमान हो, मस्जिद में भजन, मंदिरों में अज़ान हो, खून का रंग फिर एक जैसा हो, तुम मनाओ दिवाली, मैं कहूं रमजान हो, तेरे घर भगवान की पूजा हो, मेरे घर भी रखी एक कुरान हो, तुम सुनाओ छन्द ‘निराला’ के, यहाँ ‘ग़ालिब’ से मेरी पहचान हो, हिंदी की कलम तुम्हारी हो, यहाँ उर्दू …
Read More »समय की शिला – शंभुनाथ सिंह
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए। किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के गई घुल जवानी, गई मिट निशानी। विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने धरा ने उठाए, गगन ने गिराए। शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना, किसी …
Read More »गाँव जा कर क्या करेंगे – रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’
गाँव जाकर क्या करेंगे? वृद्ध–नीमों–पीपलों की छाँव जाकर क्या करेंगे? जानता हूँ मैं कि मेरे पूर्वजों की भूमि है वह और फुरसत में सताती है वहाँ की याद रह–रह ढह चुकी पीढ़ी पुरानी, नई शहरों में बसी है गाँव ऊजड़ हो चुका, वातावरण में बेबसी है यदि कहूँ संक्षेप में तो जहाँ मकड़ी वहीं जाली जहाँ जिसकी दाल– रोटी, वहीं लोटा …
Read More »रहने को घर नहीं है – हुल्लड़ मुरादाबादी
कमरा तो एक ही है कैसे चले गुजारा बीबी गई थी मैके लौटी नहीं दुबारा कहते हैं लोग मुझको शादी-शुदा कुँआरा रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा। महँगाई बढ़ रही है मेरे सर पे चढ़ रही है चीजों के भाव सुनकर तबीयत बिगड़ रही है कैसे खरीदूँ मेवे मैं खुद हुआ छुआरा रहने को घर नहीं है सारा …
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