षोडश सर्ग: सगथी आधी रात अंधेरी तम की घनता थी छाई। कमलों की आंखों से भी कुछ देता था न दिखाई ॥१॥ पर्वत पर, घोर विजन में नीरवता का शासन था। गिरि अरावली सोया था सोया तमसावृत वन था ॥२॥ धीरे से तरू के पल्लव गिरते थे भू पर आकर। नीड़ों में खग सोये थे सन्ध्या को गान सुनाकर ॥३॥ …
Read More »हल्दीघाटी: चतुर्दश सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
चतुर्दश सर्ग: सगरजनी भर तड़प–तड़पकर घन ने आंसू बरसाया। लेकर संताप सबेरे धीरे से दिनकर आया ॥१॥ था लाल बदन रोने से चिन्तन का भार लिये था। शव–चिता जलाने को वह कर में अंगार लिये था ॥२॥ निशि के भीगे मुरदों पर उतरी किरणों की माला। बस लगी जलाने उनको रवि की जलती कर–ज्वाला ॥३॥ लोहू जमने से लोहित सावन …
Read More »हल्दीघाटी: त्रयोदश सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
त्रयोदश सर्ग: सगजो कुछ बचे सिपाही शेष, हट जाने का दे आदेश। अपने भी हट गया नरेश, वह मेवाड़–गगन–राकेश ॥१॥ बनकर महाकाल का काल, जूझ पड़ा अरि से तत्काल। उसके हाथों में विकराल, मरते दम तक थी करवाल ॥२॥ उसपर तन–मन–धन बलिहार झाला धन्य, धन्य परिवार। राणा ने कह–कह शत–बार, कुल को दिया अमर अधिकार ॥३॥ हाय, ग्वालियर का सिरताज, …
Read More »हल्दीघाटी: द्वादश सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
द्वादश सर्ग: सगनिबर् ल बकरों से बाघ लड़े, भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से। घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी, पैदल बिछ गये बिछौनों से ॥१॥ हाथी से हाथी जूझ पड़े, भिड़ गये सवार सवारों से। घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े, तलवार लड़ी तलवारों से ॥२॥ हय–रूण्ड गिरे, गज–मुण्ड गिरे, कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे। लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे, भू पर हय …
Read More »हल्दीघाटी: एकादश सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
एकादश सर्ग: सगजग में जाग्रति पैदा कर दूं, वह मन्त्र नहीं, वह तन्त्र नहीं। कैसे वांछित कविता कर दूं, मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं ॥१॥ अपने उर की इच्छा भर दूं, ऐसा है कोई यन्त्र नहीं। हलचल–सी मच जाये पर यह लिखता हूं रण षड््यन्त्र नहीं ॥२॥ ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले, क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले। है …
Read More »हल्दीघाटी: दशम सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
दशम सर्ग: सगनाना तरू–वेलि–लता–मय पर्वत पर निर्जन वन था। निशि वसती थी झुरमुट में वह इतना घोर सघन था ॥१॥ पत्तों से छन–छनकर थी आती दिनकर की लेखा। वह भूतल पर बनती थी पतली–सी स्वर्णिम रेखा ॥२॥ लोनी–लोनी लतिका पर अविराम कुसुम खिलते थे। बहता था मारूत, तरू–दल धीरे–धीरे हिलते थे ॥३॥ नीलम–पल्लव की छवि से थी ललित मंजरी–काया। सोती …
Read More »हल्दीघाटी: नवम सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
नवम सर्ग: धीरे से दिनकर द्वार खोल प्राची से निकला लाल–लाल। गह्वर के भीतर छिपी निशा बिछ गया अचल पर किरण–जाल ॥१॥ सन–सन–सन–सन–सन चला पवन मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल। बढ़ चला तपन, चढ़ चला ताप धू–धू करती चल पड़ी धूल ॥२॥ तन झुलस रही थीं लू–लपटें तरू–तरू पद में लिपटी छाया। तर–तर चल रहा पसीना था छन–छन जलती जग की काया …
Read More »हल्दीघाटी: अष्ठम सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
अष्ठम सर्ग: सगगणपति गणपति के पावन पांव पूज, वाणी–पद को कर नमस्कार। उस चण्डी को, उस दुर्गा को, काली–पद को कर नमस्कार ॥१॥ उस कालकूट पीनेवाले के नयन याद कर लाल–लाल। डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता जिसके ताण्डव का ताल–ताल ॥२॥ ले महाशक्ति से शक्ति भीख व्रत रख वनदेवी रानी का। निर्भय होकर लिखता हूं मैं ले आशीर्वाद भवानी का ॥३॥ …
Read More »हल्दीघाटी: सप्तम सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
सप्तम सर्ग: अभिमानी मान–अवज्ञा से, थर–थर होने संसार लगा। पर्वत की उन्नत चोटी पर, राणा का भी दरबार लगा ॥१॥ अम्बर पर एक वितान तना, बलिहार अछूती आनों पर। मखमली बिछौने बिछे अमल, चिकनी–चिकनी चट्टानों पर ॥२॥ शुचि सजी शिला पर राणा भी बैठा अहि सा फुंकार लिये। फर–फर झण्डा था फहर रहा भावी रण का हुंकार लिये ॥३॥ भाला–बरछी–तलवार …
Read More »हल्दीघाटी: षष्ठ सर्ग – श्याम नारायण पाण्डेय
षष्ठ सर्ग: सगनीलम मणि के बन्दनवार, उनमें चांदी के मृदु तार। जातरूप के बने किवार सजे कुसुम से हीरक–द्वार ॥१॥ दिल्ली के उज्जवल हर द्वार, चमचम कंचन कलश अपार। जलमय कुश–पल्लव सहकार शोभित उन पर कुसुमित हार ॥२॥ लटक रहे थे तोरण–जाल, बजती शहनाई हर काल। उछल रहे थे सुन स्वर ताल, पथ पर छोटे–छोटे बाल ॥३॥ बजते झांझ नगारे …
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