इस डगर पर मोड़ सारे तोड़, ले चूका कितने अपरिचित मोड़। पर मुझे लगता रहा हर बार, कर रहा हूँ आइनों को पार। दर्पणों में चल रहा हूँ मै, चौखटों को छल रहा हूँ मै। सामने लेकिन मिली हर बार, फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार। फिर वही झूठे झरोके द्वार, वही मंगल चिन्ह वंदनवार। किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग …
Read More »क्यों प्रभु क्यों? – राजीव कृष्ण सक्सेना
मन मेरा क्यों अनमन कैसा यह परिवर्तन क्यों प्रभु क्यों? डोर में, पतंगों में प्रकृति रूप रंगों में कथा में, प्रसंगों में कविता के छंदों में झूम–झूम जाता था, अब क्यों वह बात नही क्यों प्रभु क्यों? सागर तट रेतों में सरसों के खेतों में स्तब्ध निशा तारों के गुपचुप संकेतों में घंटों खो जाता था अब क्यों वह बात …
Read More »परम्परा – रामधारी सिंह दिनकर
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी …
Read More »टिकिया साबुन की
तालाब किनारे राेती थी, कल बिटिया इक बैरागन की, जब जालम कागा ले भागा, बिन पूछे टिकिया साबुन की। ये बाल भी लतपत साबुन में, पाेशाक भीतन पर नाजक सी, था अब्र में सूरज भी पिनहां, आैर तेज हवा थी फागुन की। आंचल भी उसका उड़ता था, आैर हवा के संग लहराता था, इक हाथ में दामन थामा था, इक …
Read More »तुम असीम – घनश्याम चन्द्र गुप्त
रूप तुम्हारा, गंध तुम्हारी, मेरा तो बस स्पर्श मात्र है लक्ष्य तुम्हारा, प्राप्ति तुम्हारी, मेरा तो संघर्ष मात्र है। तुम असीम, मई क्षुद बिंदु सा, तुम चिरजीवी, मई क्षणभंगुर तुम अनंत हो, मई सीमित हूँ, वत समान तुम, मई नव अंकुर। तुम अगाध गंभीर सिंधु हो, मई चंचल सी नन्ही धारा तुम में विलय कोटि दिनकर, मई टिमटिम जलता बुझता …
Read More »लो वही हुआ – दिनेश सिंह
लो वही हुआ जिसका था डर, ना रही नदी, ना रही लहर। सूरज की किरण दहाड़ गई गर्मी हर देह उधाड़ गई, उठ गया बवंडर, धुल हवा में अपना झंडा गाड़ गई गौरैया हांफ रही डर कर, ना रही नदी, ना रही लहर। हर ओर उमस के चर्चे हैं, बिजली पंखों से खर्चे हैं, बूढ़े मुहए के हाथों से उड़ …
Read More »क्रांति गीत – संतोष यादव ‘अर्श’
आ जाओ क्रांति के शहज़ादों, फिर लाल तराना गाते हैं… फूलों की शय्या त्याग–त्याग, हर सुख सुविधा से भाग–भाग, फिर तलवारों पर चलते हैं, फिर अंगारों पर सोते हैं, सावन में रक्त बरसाते हैं! फिर लाल तराना गाते हैं… मारो इन चोर लुटेरों को, काटो इन रिश्वतखोरों को, लहराव जवानी का परचम, लाओ परिवर्तन का मौसम, आओ बंदूक उगाते हैं! …
Read More »चंदन बन डूब गया – किशन सरोज
छोटी से बड़ी हुईं तरुओं की छायाएं धुंधलाईं सूरज के माथे की रेखाएं मत बांधो‚ आंचल मे फूल चलो लौट चलें वह देखो! कोहरे में चंदन वन डूब गया। माना सहमी गलियों में न रहा जाएगा सांसों का भारीपन भी न सहा जाएगा किन्तु विवशता यह यदि अपनों की बात चली कांपेंगे आधर और कुछ न कहा जाएगा। वह देखो! …
Read More »चांद का कुर्ता – रामधारी सिंह दिनकर
हठ कर बैठा चांद एक दिन माता से यह बोला सिलवा दो मां मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला सन सन चलती हवा रात भर जाड़े में मरता हूं ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूं आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाड़े का बच्चे की …
Read More »चंद अशआर गुनगुनाते हैं – अरुणिमा
यों ही हम जहमतें उठाते हैं चंद अशआर गुनगुनाते हैं वे बताते हैं राह दुनियां को अपनी गलियों को भूल जाते हैं लेते परवाज़ अब नहीं ताइर सिर्फ पर अपने फड़फड़ाते हैं पांव अपने ही उठ नहीं पाते वे हमे हर लम्हें बुलाते हैं आप कहते हैं –क्या कलाम लिखा? और हम हैं कि मुस्कुराते हैं जिनको दरिया डुबो नहीं …
Read More »