तरु–तले विराजे हुए, शिला के ऊपर, कुछ टिके, –घनुष की कोटि टेक कर भू पर, निज लक्ष–सिद्धि–सी, तनिक घूमकर तिरछे, जो सींच रहीं थी पर्णकुटी के बिरछे। उन सीता को, निज मूर्तिमती माया को, प्रणयप्राणा को और कान्तकाया को, यों देख रहे थे राम अटल अनुरागी, योगी के आगे अलख–जोति ज्यों जागी। अंचल–पट कटि में खोंस, कछोटा मारे, सीता माता …
Read More »साकेत: भरत का पादुका मांगना – मैथिली शरण गुप्त
“हे राघवेंद्र यह दास सदा अनुयायी‚ है बड़ी दण्ड से दया अन्त में न्यायी! हे देव भार के लिये नहीं रोता हूं‚ इन चरणों पर ही मैं अधीर होता हूं। प्रिय रहा तुम्हें यह दयाघृष्टलक्षण तो‚ कर लेंगी प्रभु–पादुका राज्य–रक्षण तो। तो जैसी आज्ञा आर्य सुखी हों बन में‚ जूझेगा दुख से दास उदास भवन में। बस‚ मिले पादुका मुझे‚ …
Read More »साकेत: राम का उत्तर – मैथिली शरण गुप्त
“हा मातः‚ मुझको करो न यों अपराधी‚ मैं सुन न सकूंगा बात और अब आधी। कहती हो तुम क्या अन्य तुल्य यह वाणी‚ क्या राम तुम्हारा पुत्र नहीं वह मानी? अब तो आज्ञा की अम्ब तुम्हारी बारी‚ प्रस्तुत हूं मैं भी धर्म धनुर्धृतिधारी। जननी ने मुझको जना‚ तुम्हीं ने पाला‚ अपने सांचे में आप यत्न कर डाला। सबके ऊपर आदेश …
Read More »मन रे तू काहे न धीर धरे – साहिर लुधियानवी
मन रे तू काहे न धीर धरे वो निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे इस जीवन की चढ़ती गिरती धूप को किसने बांधा रंग पे किसने पहरे डाले रूप को किसने बांधा काहे ये जतन करे मन रे तू काहे न धीर धरे उतना ही उपकार समझ कोई– जितना साथ निभा दे जनम मरण का मेल है सपना यह …
Read More »सखि वे मुझसे कहकर जाते – मैथिली शरण गुप्त
सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में– क्षात्र–धर्म के नाते। सखि, वे …
Read More »रश्मिरथी – रामधारी सिंह दिनकर
रश्मिरथी, जिसका अर्थ “सूर्य का सारथी” है, हिन्दी के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। इसमें ७ सर्ग हैं। रश्मिरथी अर्थात वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है। कर्ण महाभारत महाकाव्य का अत्यन्त यशस्वी पात्र है। …
Read More »तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन – जयशंकर प्रसाद
तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन। विकल हो कर नित्य चंचल खोजती जब नींद के पल चेतना थक–सी रही तब, मैं मलय की वात रे मन। चिर विषाद विलीन मन की, इस व्यथा के तिमिर वन की मैं उषा–सी ज्योति-रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन। जहाँ मरू–ज्वाला धधकती, चातकी कन को तरसती, उन्हीं जीवन घाटियों की, मैं सरस बरसात …
Read More »कामायनी – जयशंकर प्रसाद
हिम गिरी के उत्तंग शिखर पर‚ बैठ शिला की शीतल छांह‚ एक पुरुष‚ भीगे नयनों से‚ देख रहा था प्र्रलय प्रवाह! नीचे जल था‚ ऊपर हिम था‚ एक तरल था‚ एक सघन; एक तत्व की ही प्रधानता‚ कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान; नीरवता सी शिला चरण से टकराता फिरता …
Read More »इंतजार – मनु कश्यप
जिंदगी सारी कटी करते करते इंतजार सिर्फ अब बढती उम्र मेँ इंतजार का एहसास ज्यादा है। इंतजार पहले भी था पर जवानी की उमंगों में वह कुछ छिप जाता था ज्यादा नजर नहीँ आता था पर अब छुपने वाला पर्दा गायब हो चुका है और अब घूरता है हमेँ शुबह शाम हर पल लगातार इंतजार। इच्छा है तो इंतजार है …
Read More »जब तुम आओगी – मदन कश्यप
नहीं खुली है वह चटाई जिसे लपेट कर रख गई हो कोने में एक बार भी नहीं बिछी है वह चटाई तुम्हारे जाने के बाद, जिसे बिछाकर धूप सेंकते थे हम जो अँगीठी तुमने जलाई थी चूल्हे में उसी की राख भरी है चीज़ें यथावत् पड़ी हैं अप्रयुक्त तुम्हारे जाने के साथ ही मेरे भीतर का एक बहुत बड़ा हिस्सा …
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