चाहता हूं‚ कुछ लिखूँ‚ पर कुछ निकलता ही नहीं है दोस्त‚ भीतर आपके काई विकलता ही नहीं है। आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से बंद अपने में अकेले‚ दूर सारी हलचलों से हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरंतर चिड़चिड़ा कर कह रहे– “कम्बख्त जलता ही नहीं है।” बिजलियां घिरती‚ हवाए काँँपती‚ रोता अंधेरा लोग …
Read More »याद आये – किशन सरोज
याद आये फिर तुम्हारे केश मन–भुवन में फिर अंधेरा हो गया पर्वतों का तन घटाओं ने छुआ, घाटियों का ब्याह फिर जल से हुआ; याद आये फिर तुम्हारे नैन, देह मछरी, मन मछेरा हो गया प्राण–वन में चन्दनी ज्वाला जली, प्यास हिरनों की पलाशों ने छली; याद आये फिर तुम्हाते होंठ, भाल सूरज का बसेरा हो गया दूर मंदिर में …
Read More »कितने दिन चले – किशन सरोज
कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की देखिये, तटबंध कितने दिन चले मोह में अपनी मंगेतर के समुंदर बन गया बादल, सीढ़ियाँ वीरान मंदिर की लगा चढ़ने घुमड़ता जल; काँपता है धार से लिपटा हुआ पुल देखिये, संबंध कितने दिन चले फिर हवा सहला गई माथा हुआ फिर बावला पीपल, वक्ष से लग घाट से रोई सुबह तक नाव हो पागल; …
Read More »जल – किशन सरोज
नींद सुख की फिर हमे सोने न देगा यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल। छू लिये भीगे कमल, भीगी ऋचाएँ मन हुए गीले, बहीं गीली हवाएँ। बहुत संभव है डुबो दे सृष्टि सारी, दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल। हिमशिखर, सागर, नदी, झीलें, सरोवर, ओस, आँसू, मेघ, मधु, श्रम, बिंदु, निर्झर, रूप धर अनगिन कथा कहता दुखों की …
Read More »फूटा प्रभात – भारत भूषण अग्रवाल
फूटा प्रभात‚ फूटा विहान बह चले रश्मि के प्राण‚ विहग के गान‚ मधुर निर्झर के स्वर झर–झर‚ झर–झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज‚ मानो अंबर की सरसी में फूला कोई रक्तिम गुलाब‚ रक्तिम सरसिज। धीरे–धीरे‚ लो‚ फैल चली आलोक रेख धुल गया तिमिर‚ बह गयी निशा; चहुँ ओर देख‚ धुल रही विभा‚ विमलाभ कान्ति। सस्मित‚ विस्मित‚ खुल गये द्वार‚ हँस रही …
Read More »पथ-हीन – भारत भूषण अग्रवाल
कौन सा पथ है? मार्ग में आकुल–अधीरातुर बटोही यों पुकारा कौन सा पथ है? ‘महाजन जिस ओर जाएं’ – शास्त्र हुँकारा ‘अंतरात्मा ले चले जिस ओर’ – बोला न्याय पंडित ‘साथ आओ सर्व–साधारण जनों के’ – क्रांति वाणी। पर महाजन–मार्ग–गमनोचित न संबल है‚ न रथ है‚ अन्तरात्मा अनिश्चय–संशय–ग्रसित‚ क्रांति–गति–अनुसरण–योग्या है न पद सामर्थ्य। कौन सा पथ है? मार्ग में आकुल–अधीरातुर …
Read More »नींद भी न आई (तुक्तक) – भारत भूषण अग्रवाल
नींद भी न आई, गिने भी न तारे गिनती ही भूल गए विरह के मारे रात भर जाग कर खूब गुणा भाग कर ज्यों ही याद आई, डूब गए थे तारे। यात्रियों के मना करने के बावजूद गये चलती ट्रेन से कूद गये पास न टिकट था टीटी भी विकत था बिस्तर तो रह ही गया, और रह अमरुद गये। …
Read More »मैं और मेरा पिट्ठू – भारत भूषण अग्रवाल
देह से अलग होकर भी मैं दो हूँ मेरे पेट में पिट्ठू है। जब मैं दफ्तर में साहब की घंटी पर उठता बैठता हूँ मेरा पिट्ठू नदी किनारे वंशी बजाता रहता है! जब मेरी नोटिंग कट–कुटकर रिटाइप होती है तब साप्ताहिक के मुखपृष्ठ पर मेरे पिट्ठू की तस्वीर छपती है! शाम को जब मैं बस के फुटबोर्ड पत टँगा–टँगा घर …
Read More »यह भी दिन बीत गया – रामदरश मिश्र
यह भी दिन बीत गया। पता नहीं जीवन का यह घड़ा एक बूंद भरा या कि एक बूंद रीत गया। उठा कहीं, गिरा कहीं, पाया कुछ खो दिया बंधा कहीं, खुला कहीं, हँसा कहीं रो दिया पता नहीं इन घड़ियों का हिया आँसू बन ढलका या कुल का बन दीप गया। इस तट लगने वाले कहीं और जा लगे किसके …
Read More »वह युग कब आएगा – बेधड़क बनारसी
जब पेड़ नहीं केवल शाखें होंगी जब चश्मे के ऊपर आंखें होंगी वह युग कब आएगा? जब पैदा होने पर मातमपुरसी होगी जब आदमी के ऊपर बैठी कुरसी होगी वह युग कब आएगा? जब धागा सुई को सियेगा जब सिगरेट आदमी को पियेगा वह युग कब आएगा? जब अकल कभी न पास फटकेगी जब नाक की जगह दुम लटकेगी वह …
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