चीजों में कुछ चीजें बातों में कुछ बातें वो होंगी जिन्हें कभी देख न पाओगे इक्कीसवीं सदी में ढूंढते रह जाओगे बच्चों में बचपन जवानी में यौवन शीशों में दरपन जीवन में सावन गाँव में अखाड़ा शहर में सिंघाड़ा टेबल की जगह पहाड़ा और पायजामें में नाड़ा ढूंढते रह जाओगे चूड़ी भरी कलाई शादी में शहनाई आंखों में पानी दादी …
Read More »देह के मस्तूल: चंद्रसेन विराट
अंजुरी–जल में प्रणय की‚ अंर्चना के फूल डूबे ये अमलतासी अंधेरे‚ और कचनारी उजेरे, आयु के ऋतुरंग में सब चाह के अनुकूल डूबे। स्पर्श के संवाद बोले‚ रक्त में तूफान घोले‚ कामना के ज्वार–जल में देह के मस्तूल डूबे। भावना से बुद्धि मोहित – हो गई पज्ञा तिरोहित‚ चेतना के तरु–शिखर डूबे‚ सु–संयम मूल डूबे। ∼ चंद्रसेन विराट
Read More »दरवाजे बंद मिले: नरेंद्र चंचल
बार–बार चिल्लाया सूरज का नाम जाली में बांध गई केसरिया शाम दर्द फूटना चाहा अनचाहे छंद मिले दरवाज़े बंद मिले। गंगाजल पीने से हो गया पवित्र यह सब मृगतृष्णा है‚ मृगतृष्णा मित्र नहीं टूटना चाहा शायद फिर गंध मिले दरवाज़े बंद मिले। धीरे से बोल गई गमले की नागफनी साथ रहे विषधर पर चंदन से नहीं बनी दर्द लूटना चाहा …
Read More »दफ्तर का बाबू: सुरेश उपाध्याय
दफ्तर का एक बाबू मरा सीधा नरक में जा कर गिरा न तो उसे कोई दुख हुआ ना ही वो घबराया यों खुशी में झूम कर चिल्लाया – ‘वाह वाह क्या व्यवस्था है‚ क्या सुविधा है‚ क्या शान है! नरक के निर्माता तू कितना महान है! आंखों में क्रोध लिये यमराज प्रगट हुए बोले‚ ‘नादान दुख और पीड़ा का यह …
Read More »दुपहरिया: केदार नाथ सिंह
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की, उड़ने लगी बुझे खेतों से झुर झुर सरसों की रंगीनी, धूसर धूप हुई मन पर ज्यों – सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुकसी गई प्रगति जीवन की। सांस रोक कर खड़े हो गये लुटे–लुटे से शीशम उन्मन, चिलबिल की नंगी बाहों में भरने लगा एक …
Read More »दाने: केदार नाथ सिंह
नहीं हम मंडी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने जाएँगे तो फिर लौट कर नहीं आएँगे जाते जाते कहते जाते हैं दाने अगर लौट कर आए भी तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे अपनी अंतिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने उसके बाद महीनों तक बस्ती में काई चिट्ठी नहीं आती ~ केदार नाथ सिंह
Read More »चूड़ी का टुकड़ा: गिरिजा कुमार माथुर
आज अचानक सूनीसी संध्या में जब मैं यों ही मैले कपड़े देख रहा था किसी काम में जी बहलाने, एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा, गिरा रेशमी चूड़ी का छोटासा टुकड़ा, उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थीं, रंग भरी उस मिलन रात में मैं वैसे का वैसा ही रह गया सोचता पिछली बातें दूज कोर से …
Read More »चिड़िया और चुरुगन: हरिवंश राय बच्चन
छोड़ घोंसला बाहर आया‚ देखी डालें‚ देखे पात‚ और सुनी जो पत्ते हिलमिल‚ करते हैं आपस में बात; माँँ‚ क्या मुझको उड़ना आया? “नहीं चुरूगन‚ तू भरमाया” डाली से डाली पर पहुँचा‚ देखी कलियाँ‚ देखे फूल‚ ऊपर उठ कर फुनगी जानी‚ नीचे झुक कर जाना मूल; माँँ‚ क्या मुझको उड़ना आया? “नहीं चुरूगन तू भरमाया” कच्चे–पक्के फल पहचाने‚ खाए और …
Read More »छोटे शहर की यादें: शार्दुला नोगजा
मुझे फिर बुलातीं हैं मुस्काती रातें, वो छोटे शहर की बड़ी प्यारी बातें। चंदा की फाँकों का हौले से बढ़ना, जामुन की टहनी पे सूरज का चढ़ना। कड़कती दोपहरी का हल्ला मचाना, वो सांझों का नज़रें चुरा बेर खाना। वहीं आ गया वक्त फिर आते जाते, ले फूलों के गहने‚ ले पत्तों के छाते। बहना का कानों में हँस फुसफुसाना, …
Read More »छाया मत छूना: गिरिजा कुमार माथुर
छाया मत छूना मन‚ होगा दुख दूना। जीवन में हैं सुरंग सुधियां सुहावनी छवियों की चित्र गंध फैली मनभावनी: तन सुगंध शेष रही बीत गई यामिनी‚ कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी। भूली सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण – छाया मत छूना मन‚ होगा दुख दूना। यश है ना वैभव है मान है न सरमाया; जितना भी …
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