एक बार हमें करनी पड़ी रेल की यात्रा देख सवारियों की मात्रा पसीने लगे छूटने हम घर की तरफ़ लगे फूटने। इतने में एक कुली आया और हमसे फ़रमाया साहब अंदर जाना है? हमने कहा हां भाई जाना है उसने कहा अंदर तो पंहुचा दूंगा पर रुपये पूरे पचास लूंगा हमने कहा समान नहीं केवल हम हैं तो उसने कहा …
Read More »हुल्लड़ के दोहे – हुल्लड़ मुरादाबादी
कर्ज़ा देता मित्र को, वह मूर्ख कहलाए, महामूर्ख वह यार है, जो पैसे लौटाए। बिना जुर्म के पिटेगा, समझाया था तोय, पंगा लेकर पुलिस से, साबित बचा न कोय। गुरु पुलिस दोऊ खड़े, काके लागूं पाय, तभी पुलिस ने गुरु के, पांव दिए तुड़वाय। पूर्ण सफलता के लिए, दो चीज़ें रखो याद, मंत्री की चमचागिरी, पुलिस का आशीर्वाद। नेता को …
Read More »मुस्कुराने के लिए – हुल्लड़ मुरादाबादी
मसखरा मशहूर है, आँसू बहाने के लिए बाँटता है वो हँसी, सारे ज़माने के लिए। जख्म सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमक आएगा कोई नहीं, मरहम लगाने के लिए। देखकर तेरी तरक्की, ख़ुश नहीं होगा कोई लोग मौक़ा ढूँढते हैं, काट खाने के लिए। फलसफ़ा कोई नहीं है, और न मकसद कोई लोग कुछ आते जहाँ में, हिनहिनाने के लिए। …
Read More »क्या करेगी चांदनी – हुल्लड़ मुरादाबादी
चांद औरों पर मरेगा क्या करेगी चांदनी प्यार में पंगा करेगा क्या करेगी चांदनी? डिग्रियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं नौजवाँ फ़ाँके करेगा क्या करेगी चांदनी? लाख तुम फ़सलें उगा लो एकता की देश में इसको जब नेता चरेगा क्या करेगी चांदनी? रोज़ ड्यूटी दे रहा है एक भी छुट्टी नहीं सूर्य को जब फ्लू धरेगा क्या …
Read More »जरूरत क्या थी? – हुल्लड़ मुरादाबादी
आइना उनको दिखाने कि ज़रूरत क्या थी वो हैं वंदर ये बताने कि ज़रूरत क्या थी? दो के झगड़े में पिटा तीसरा, चौथा बोला आपको टाँग अड़ाने कि ज़रूरत क्या थी? चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं साँप को दूध पिलाने कि ज़रूरत क्या थी? चोर जो चुप ही लगा जाता तो वो कम पिटता बाप का नाम बताने …
Read More »मैं हूँ अपराधी किस प्रकार – ठाकुर गोपाल शरण सिंह
मैं हूँ अपराधी किस प्रकार? सुन कर प्राणों के प्रेम–गीत, निज कंपित अधरों से सभीत। मैंने पूछा था एक बार, है कितना मुझसे तुम्हें प्यार? मैं हूँ अपराधी किस प्रकार? हो गये विश्व के नयन लाल, कंप गया धरातल भी विशाल। अधरों में मधु – प्रेमोपहार, कर लिया स्पर्श था एक बार। मैं हूँ अपराधी किस प्रकार? कर उठे गगन …
Read More »सतपुड़ा के घने जंगल – भवानी प्रसाद मिश्र
सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मींचे, घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल, पलाश चुप है; बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते, …
Read More »सन्नाटा – भवानी प्रसाद मिश्र
तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको, तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे, मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको। कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं, निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं, मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ, मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं। कभी कभी कुछ …
Read More »साधारण का आनंद – भवानी प्रसाद मिश्र
सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तब कहना चाहिए सम्पन्न व्यक्ति व्यक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का …
Read More »जाहिल मेरे बाने – भवानी प्रसाद मिश्र
मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पाँवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर आप …
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