उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे। उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे। बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे। छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर …
Read More »करो हमको न शर्मिंदा – कुंवर बेचैन
करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा। कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा। तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा। सफाई थी सचाई थी …
Read More »क्योंकि अब हमें पता है – मनु कश्यप
क्योंकि अब हमें पता है कितने भाग्यशाली हैं वे लोग जो आंखें मूंद कर हाथ जोड़ कर सुनते हैं कथा कह देते हैं अपनी सब व्यथा मांग लेते हैं वरदान पालनहारे से। और हम पढ़ कर चिंतन मनन कर हुए पंडित नहीं कर पाते यह सब क्योंकि अब हमें पता है नहीं है कोई पालनहारा। अनायास ही उपजे हैं हम …
Read More »जीवन दर्शन – काका हाथरसी
मोक्ष मार्ग के पथिक बनो तो मेरी बातें सुनो ध्यान से, जीवन–दर्शन प्राप्त किया है मैने अपने आत्मज्ञान से। लख चेोरासी योेनि धर कर मानव की यह पाई काया, फिर क्यों व्रत, उपवास करूँ मैं इसका समाधान ना पाया। इसलिए मैं कभी भूलकर व्रत के पास नहीं जाता हूँ, जिस दिन एकादश होती है उस दिन और अधिक खाता हूँ। …
Read More »उदास तुम – धर्मवीर भारती
तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास! ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास मदभरी चांदनी जगती हो! मुँह पर ढँक लेती हो आँचल ज्यों डूब रहे रवि पर बादल, या दिन-भर उड़कर थकी किरन, सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन! दो भूले-भटके सांध्य–विहग, पुतली में कर लेते निवास! तुम …
Read More »प्रथम प्रणय – धर्मवीर भारती
पहला दृष्टिकोणः यों कथा–कहानी–उपन्यास में कुछ भी हो इस अधकचरे मन के पहले आकर्षण को कोई भी याद नहीं रखता चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो! कड़वा नैराश्य‚ विकलता‚ घुटती बेचैनी धीरे–धीरे दब जाती है‚ परिवार‚ गृहस्थी‚ रोजी–धंधा‚ राजनीति अखबार सुबह‚ संध्या को पत्नी का आँचल मन पर छाया कर लेते हैं जीवन की यह विराट चक्की हर–एक नोक को …
Read More »टूटा पहिया – धर्मवीर भारती
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत ! क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय ! अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी बड़े-बड़े महारथी अकेली निहत्थी आवाज़ को अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें तब मैं रथ का टूटा हुआ पहिया उसके हाथों …
Read More »फागुन के दिन की एक अनुभूति – धर्मवीर भारती
फागुन के सूखे दिन कस्बे के स्टेशन की धूल भरी राह बड़ी सूनी सी ट्रेन गुजर जाने के बाद पके खेतों पर ख़ामोशी पहले से और हुई दूनी सी आंधी के पत्तों से अनगिन तोते जैसे टूट गिरे लाइन पर, मेड़ों पर, पुलिया आस पास सब कुछ निस्तब्ध शांत मूर्छित सा अकस्मात्… चौकन्नी लोखरिया उछली और तेज़ी से तार फांद …
Read More »नवम्बर की दोपहर – धर्मवीर भारती
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले–सी यह दोपहर नवम्बर की। आयीं गयीं ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी जो कंवारेपन के कच्चे छल्ले–सी इस मन की उंगली पर कस जाये और फिर कसी ही रहे नित प्रति बसी ही रहे आँखों, बातों में, गीतों में, आलिंगन में, घायल फूलों की माला–सी …
Read More »मुनादी: धर्मवीर भारती
ख़लक खुदा का, मुलुक बाश्शा का हुकुम शहर कोतवाल का… हर ख़ासो–आम को आगह किया जाता है कि ख़बरदार रहें और अपने अपने किवाड़ों को अंदर से कुंडी चढ़ा कर बंद कर लें गिरा लें खिड़कियों के परदे और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमज़ोर आवाज में सड़कों पर …
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