नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर? नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और। शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने, बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने। कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर, विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर। मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप, श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप। जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में- ज्ञानचंद छ्ह बार …
Read More »तेली कौ ब्याह – काका हाथरसी
भोलू तेली गाँव में, करै तेल की सेल गली-गली फेरी करै, ‘तेल लेऊ जी तेल’ ‘तेल लेऊ जी तेल’, कड़कड़ी ऐसी बोली बिजुरी तड़कै अथवा छूट रही हो गोली कहँ काका कवि कछुक दिना सन्नाटौ छायौ एक साल तक तेली नहीं गाँव में आयो। मिल्यौ अचानक एक दिन, मरियल बा की चाल काया ढीली पिलपिली, पिचके दोऊ गाल पिचके दोऊ …
Read More »काका के उपदेश – काका हाथरसी
आइये प्रिय भक्तगण उपदेश कुछ सुन लीजिये पढ़ चुके हैं बहुत पोथी आज कुछा गुन लीजिये हाथ में हो गोमुखी माला सदा हिलती रहे नम्र ऊपर से बनें भीतर छुरी चलती रहे नगर से बाहर बगीचे– में बना लें झेपड़ी दीप जैसी देह चमके सीप जैसी खोपड़ी तर्क करने के लिये आ जाए कोई सामने खुल न जाए पोल इस– …
Read More »क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी – हरिवंश राय बच्चन
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ? मैं दुखी जब-जब हुआ संवेदना तुमने दिखाई, मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा, रीति दोनो ने निभाई, किन्तु इस आभार का अब हो उठा है बोझ भारी; क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ? एक भी उच्छ्वास मेरा हो सका किस दिन तुम्हारा? उस नयन से बह सकी कब इस नयन की अश्रु-धारा? सत्य को …
Read More »ख़य्याम की मधुशाला (भाग एक) – हरिवंश राय बच्चन
चलो चल कर बैठें उस ठौर, बिछी जिस थल मखमल सी घास, जहाँ जा शस्य श्यामला भूमि, धवल मरु के बैठी है पास। घनी सिर पर तरुवर की डाल, हरी पाँवों के नीचे घास, बग़ल में मधु मदिरा का पात्र, सामने रोटी के दो ग्रास, सरस कविता की पुस्तक हाथ, और सब के ऊपर तुम प्राण, गा रही छेड़ सुरीली …
Read More »है यह पतझड़ की शाम, सखे – हरिवंश राय बच्चन
है यह पतझड़ की शाम, सखे! नीलम-से पल्लव टूट गए, मरकत-से साथी छूट गए, अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे! है यह पतझड़ की शाम, सखे! लुक-छिप करके गानेवाली, मानव से शरमानेवाली कू-कू कर कोयल माँग रही नूतन घूँघट अविराम, सखे! है यह पतझड़ की शाम, सखे! नंगी डालों पर नीड़ सघन, नीड़ों में है कुछ-कुछ …
Read More »यह अरुण चूड़ का तरुण राग – हरिवंश राय बच्चन
सुनकर इसकी हुंकार वीर हो उठा सजग अस्थिर समीर, उड चले तिमिर का वक्ष चीर चिड़ियों के पहरेदार काग! यह अरुण-चूड़ का तरुण राग! जग पड़ा खगों का कुल महान, छिड़ गया सम्मिलित मधुर गान, पौ फटी, हुआ स्वर्णिम विहान, तम चला भाग, तम गया भाग! यह अरुण-चूड़ का तरुण राग! अब जीवन-जागृति-ज्योति दान परिपूर्ण भूमितल, आसमान, मानो कण-कण की …
Read More »तीर पर कैसे रुकूँ मैं – हरिवंश राय बच्चन
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे, वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता, शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें, इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में, है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल – कंपन! तीर पर …
Read More »साथी साँझ लगी अब होने – हरिवंश राय बच्चन
फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने। साथी, साँझ लगी अब होने! खेल रही थी धूलि कणों में, लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में, वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने। साथी, साँझ लगी अब होने! मिट्टी से था जिन्हें बनाया, फूलों से था जिन्हें सजाया, खेल-घरौंदे …
Read More »साथी अंत दिवस का आया – हरिवंश राय बच्चन
तरु पर लौट रहें हैं नभचर, लौट रहीं नौकाएँ तट पर, पश्चिम कि गोदी में रवी कि, श्रांत किरण ने आश्रय पाया साथी अंत दिवस का आया रवि रजनी का आलिंगन है संध्या स्नेह मिलन का क्षण है कान्त प्रतीक्षा में गृहणी ने, देखो धर धर दीप जलाया साथी अंत दिवस का आया जग के वृस्तित अंधकार में जीवन के …
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